Monday, November 22, 2010

मधुमेह हुआ जबसे हमको, मिष्ठान नही हम खाते हैं।

मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।
बरफी-लड्डू के चित्र देखकर,
अपने मन को बहलाते हैं।।
आलू, चावल और रसगुल्ले,
खाने को मन ललचाता है,
हम जीभ फिराकर होठों पर,

आँखों को स्वाद चखाते हैं।
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।।
गुड़ की डेली मुख में रखकर,
हम रोज रात को सोते थे,
बीते जीवन के वो लम्हें,
बचपन की याद दिलाते हैं।
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।
हर सामग्री का जीवन में,
कोटा निर्धारित होता है,
उपभोग किया ज्यादा खाकर,
अब जीवन भर पछताते हैं।
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।
थोड़ा-थोड़ा खाते रहते तो,
जीवन भर खा सकते थे,
पेड़ा और बालूशाही को,
हम देख-देख ललचाते हैं।
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।
हमने खाया मन-तन भरके,
अब शिक्षा जग को देते हैं,
खाना मीठा पर कम खाना,
हम दुनिया को समझाते हैं।
मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान नही हम खाते हैं।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)






रविकांत ने अलसी से डायबिटीज पर किया काबू


मुझे यह सूचित करते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि आपके दिशा निर्देशन में मैं डायबिटीज जैसे भयानक और असाद्य रोग को नियंत्रण करने में सफल रहा हूँ। मुझे अपने डायबिटीज होने की जानकारी वर्ष 2008 माह सितम्बर में तब हुआ जब मैंने अपना ब्लड शुगर चेक करवाया उस समय मेरा ब्लड शुगर F 265- PP 450 था। उसके बाद मैंने ऐलोपैथी दवा मैंने छः या सात माह तक चालू रखी लेकिन बाद में दिनचर्या बिगड़ जाने एंव ऐलोपैथी दवा के साइड इफेक्ट के चलते उसे मैने नियमित नहीं रखा तथा मेरी शुगर खतरनाक तरीके से बढ़कर पुनः 298-490 हो गई। इसके बाद मैं आप (डॉ. वर्मा साहब) के सम्पर्क में आया। डॉ. वर्मा साहब ने मुझे अलसी से डायबिटीज पर नियंत्रण करने की सलाह दी। मैं उनके बताये अनुसार अलसी और गेहूँ के आटे की मिश्रित रोटी माह अगस्त, 2010 से लगातार खा रहा हूँ। साथ ही साथ सुबह 1 घंटा टहलना तथा आधे घंटे शाम में टहलना जारी कर रखा हूँ। इसके साथ-साथ 30-45 मी.ली. अलसी का तेल जो ठंडी विधि से निकाला गया हो, 100 ग्राम दही के साथ मिलाकर हैंड ब्लेंडर से मिश्रित कर सुबह–सुबह खाली पेट में ले रहा हूँ। डॉ. साहब की सलाह से रिफाइण्ड तेल बिलकुल बन्द कर सरसों का घाणी का तेल खा रहा हूँ। इसके अलावा दाल चीनी भी एक चुटकी सुबह-शाम गर्म दाल सब्जी के साथ ले रहा हूँ। इसके अलावा ऐलोपैथी दवा Mopaday–15 सुबह – शाम, Ebiza - L सुबह शाम एवं दो–दो गोली डाबर शीलाजीत का सुबह-शाम ले रहा हूँ। अब मेरा तीन महीने बाद ब्लड शुगर 108-135 हो गया है। मुझे अब काफी अच्छा महसूस कर रहा हूँ। मेरा मोबाइल नं. 9460176480 है। मैं अपना फोटो भी इस पत्र के साथ भेज रहा हूँ। मुझे पहले पैदल चलने पर चक्कर आने जैसा अनुभव होता था लेकिन अब ठीक है कोई बात नहीं है। पहले मेरी कमर में जकड़न रहती थी जो अब ठीक हो गयी है। मैं चश्मा तो नहीं लगाता था लेकिन अलसी खाने से मेरी नज़र बहुत क्लियर और अच्छी हो गयी है। पहले थोड़ा सा घूमने के बाद ही चक्कर से आते थे, लगता था जैसे गिर जाऊंगा लेकिन अब बिना परेशानी के मैं डेढ़ घंटा रोज घूम रहा हूँ। पहले सीढ़ियां चढ़ने में घबराहट होती थी अब दौड़कर सीढ़ियां चढ़ जाता हूँ।

(रविकान्त प्रसाद)

Saturday, November 6, 2010

स्तंभनदोष - कारण और निवारण

आधुनिक युग में हमारी जीवनशैली और आहारशैली में आये बदलाव और भोजन में ओमेगा-3 की भारी कमी आने के कारण पुरुषों में स्तंभनदोष या इरेक्टाइल डिसफंक्शन की समस्या बहुत बढ़ गई है। यौन उत्तेजना होने पर यदि शिश्न में इतना फैलाव और कड़ापन भी न आ पाये कि संपूर्ण शारीरिक संबन्ध स्थापित हो सके तो इस अवस्था को स्तंभनदोष कहते हैं। इसका मुख्य कारण डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, दवाइयां (ब्लडप्रेशर, डिप्रेशन आदि में दी जाने वाली) इत्यादि है। यह ऐसा रोग है जिस पर अमूमन खुलकर चर्चा भी कम ही होती है। सच यह है कि असहज, व्यक्तिगत और असुविधाजनक चर्चा मानकर छोड़ दिए जाने से इस गंभीर दुष्प्रभाव के प्रति जागरूकता लाने का एक महत्वपूर्ण पहलू छूट जाता है। सेक्स की चर्चा करने में हम शर्म झिझक महसूस करते हैं। शायद हम सेक्स को पोर्नोग्राफी से जोड़ कर देखते हैं। जहां पोर्नोग्राफी विकृत, अश्लील और घिनौना अपराध है, वहीं सेक्स स्वाभाविक, प्राकृतिक, सहज तथा प्रकृति-प्रदत्त महत्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है। यह सभ्य समाज के निर्माण हेतु हमारा परम कर्तव्य है। सेक्स विवाह का अनूठा उपहार है, पति पत्नि के प्रगाढ़ प्रेम की पूर्णता है, परिपक्वता है, सफलता है, परस्पर दायित्वों का वहन है, मातृत्व का पहला पाठ है, पिता का परम आशीर्वाद है और ईश्वर की सबसे प्रिय इस धरा-लोक के संचालन का प्रमुख जरिया है। सेक्स संबन्धी समस्याओं के निवारण के लिए व्यापक चर्चा होनी चाहिये।

आज के परिवेश में यह विषय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आजकल यह रोग युवाओं को भी अपना शिकार बना रहा है। आप देख रहे हैं कि आजकल तो भरी जवानी में ही बास्टर्ड ब्लडप्रेशर बिना दस्तक दिये घर में घुस जाता है और सेक्स का लड्डू चखने के पहले ही डायन डायबिटीज उन्हें डेट पर ले जाती है।

शिश्न की संरचना

शिश्न की त्वचा अति विशिष्ट, संवेदनशील, काफी ढीली और लचीली होती है, ताकि स्तंभन के समय जब शिश्न के आकार और मोटाई में वृद्धि हो और कड़ापन आये तो त्वचा में कोई खिंचाव न आये। त्वचा का यह लचीलापन सेक्स होर्मोन द्वारा नियंत्रित होता है। मानव शिश्न स्पंजी ऊतक के तीन स्तंभों से मिल कर बनता है। पृष्ठीय पक्ष पर दो कोर्पस केवर्नोसा एक दूसरे के साथ-साथ तथा एक कोर्पस स्पोंजिओसम उदर पक्ष पर इन दोनों के बीच स्थित होता है। ये दोनों कोर्पस कैवर्नोसा स्तंभ शुरू के तीन चौथाई भाग में छिद्रों द्वारा आपस में जुड़े रहते हैं। पीछे की ओर ये विभाजित हो कर प्यूबिक आर्क के जुड़े रहते हैं। रेक्टस पेशी का निचला भाग शिश्न के पिछले भाग से जुड़ा रहता है। इन स्तंभों पर एक कड़ा, मोटा और मजबूत खोल चढ़ा रहता है जिसे टूनिका एल्बूजीनिया कहते हैं। मूत्रमार्ग कोर्पस स्पोंजिओसम में होकर गुजरता है। बक्स फेशिया नामक कड़ा खोल इन तीनों स्तंभों को लिपटे रहता है। इसके बाहर एक खोल और होता है जिसे कोलीज फेशिया कहते हैं। कोर्पस स्पोंजिओसम का वृहत और सुपारी के आकार का सिरा शिश्नमुंड कहलाता है जो अग्रत्वचा द्वारा सुरक्षित रहता है। अग्रत्वचा एक ढीली त्वचा की दोहरी परत वाली संरचना है जिसको अगर पीछे खींचा जाये तो शिश्नमुंड दिखने लगता है। शिश्न के निचली ओर का वह क्षेत्र जहाँ से अग्रत्वचा जुड़ी रहती है अग्रत्वचा का बंध (फ्रेनुलम) कहलाता है। शिश्नमुंड की नोक पर मूत्रमार्ग का अंतिम हिस्सा, जिसे मूत्रमार्गी छिद्र के रूप में जाना जाता है, स्थित होता है। यह मूत्र त्याग और वीर्य स्खलन दोनों के लिए एकमात्र रास्ता होता है। शुक्राणु का उत्पादन दोनो वृषणों मे होता है और इनका संग्रहण संलग्न अधिवृषण (एपिडिडिमस) में होता है। वीर्य स्खलन के दौरान, शुक्राणु दो नलिकाओं जिन्हें शुक्रवाहिका (वास डिफेरेंस) के नाम से जाना जाता है और जो मूत्राशय के पीछे की स्थित होती हैं, से होकर गुजरते है। इस यात्रा के दौरान सेमिनल वेसाइकल और शुक्रवाहक द्वारा स्रावित तरल शुक्राणुओं मे मिलता है और जो दो स्खलन नलिकाओं के माध्यम से पुरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के अंदर मूत्रमार्ग से जा मिलता है। प्रोस्टेट और बल्बोयूरेथ्रल ग्रंथियां इसमे और अधिक स्रावों को जोड़ते है और वीर्य अंतत: शिश्न के माध्यम से बाहर निकल जाता है।

स्तंभन दोष के कारण

सामान्य स्तंभन की प्रक्रिया हार्मोन, नाड़ी तंत्र, रक्तपरिवहन तथा केवर्नोसल घटकों के सामन्जस्य पर निर्भर करती है। स्तंभनदोष में कई बार एक से ज्यादा घटक कार्य करते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण

शिश्न आघात या रोग

पेरोनीज रोग, अविरत शिश्नोत्थान (Priapism)।

दवाइयां

डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, डिप्रेशन आदि रोगों की अधिकतर दवाइयां आदमी को नपुंसक बना देती हैं।

प्रौढ़ता (Ageing)

जीर्ण रोग (Chronic Diseases)

डायबिटीज, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, अनियंत्रित लिपिड प्रोफाइल, किडनी फेल्यर, यकृत रोग और वाहिकीय रोग।

विकृत जीवनशैली

धूम्रपान और मदिरा सेवन।

धमनी रोग

डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और कई दवाइयों के प्रयोग की वजह से।

नाड़ी संबन्घी रोग

सुषुम्ना नाड़ी आघात (Spinal cord Injury), वस्तिप्रदेश आघात (Injury Pelvis) या शल्य क्रिया, मल्टीपल स्क्लिरोसिस, स्ट्रोक आदि।

हार्मोन

टेस्टोस्टीरोन का स्राव कम होना, प्रोलेक्टिन बढ़ना।

स्तंभन का रसायनशास्त्र

स्पर्श, स्पंदन, दर्शन, श्रवण, गंध, स्मरण या किसी अन्य अनुभूति द्वारा यौन उत्तेजना होने पर शिश्न में नोनएड्रीनर्जिक नोनकोलीनर्जिक नाड़ी कोशिकाएं और रक्तवाहिकाओं की आंतरिक भित्तियां (Endothelium) नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) का स्राव करते हैं। नाइट्रिक ऑक्साइड अति सक्रिय तत्व है तथा ये एंजाइम साइटोप्लाज्मिक गुआनाइल साइक्लेज को सक्रिय करते हैं जो GTP को cGMP में परिवर्तित कर देते हैं। cGMP विशिष्ठ प्रोटीन काइनेज को सक्रिय करते हैं जो अमुक प्रोटीन में फोस्फेट का अणु जोड़ देते हैं फिर यह प्रोटीन सक्रिय होकर स्निग्ध पेशियों के पोटेशियम द्वार खोल देते हैं, केल्शियम द्वार बंद कर देते हैं और कोशिका में विद्यमान केल्शियम को एंडोप्लाजमिक रेटिकुलम में बंद कर ताला जड़ देते हैं। पेशी कोशिका में केल्शियम की कमी के फलस्वरूप कोर्पस केवर्नोसस में स्निग्ध पेशियों, धमनियों का विस्तारण होता है और और कोर्पस केवर्नोसम के रिक्त स्थान में रक्त भर जाता है। यह रक्त से भरे केवर्नोसम रक्त को वापस ले जाने वाली शिराओं के जाल पर दबाव डाल कर सिकोड़ देते है, जिसके कारण शिश्न में अधिक रक्त प्रवेश करता है और कम रक्त वापस लौटता है। इसके फलस्वरूप शिश्न आकार में बड़ा और कड़ा हो जाता है तथा तन कर खड़ा हो जाता है। इस अवस्था को हम स्तंभन कहते हैं, जो संभोग के लिए अति आवश्यक है। संभोग सुख की चरम अवस्था पर मादा की योनि में पेशी संकुचन की एक श्रृंखला के द्वारा वीर्य के स्खलन के साथ संभोग की क्रिया संपन्न होती है। स्खलन के बाद स्निग्ध पेशियां और धमनियां पुनः संकुचित हो जाती हैं, रक्त की आवक कम हो जाती है, केवर्नोसम के रिक्त स्थान में भरा अधिकांश रक्त बाहर हो जाता है, शिराओं के जाल पर रक्त से भरे केवर्नोसम का दबाव हट जाता है और शिश्न शिथिल अवस्था में आ जाता है। अंत में एंजाइम फोस्फोडाइईस्ट्रेज-5 (PDE 5) cGMP को GMP चयापचित कर देते हैं।

उपचार

पी डी ई-5 इन्हिबीटर चार्ज करे मीटर
पिछले कई वर्षों से पी.डी.ई.-5 इन्हिबीटर्स जैसे सिलडेनाफिल (वियाग्रा), टाडालाफिल, वरडेनाफिल आदि को स्तंभनदोष की महान चमत्कारी दवा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ये शिश्न को रक्त भर कर कठोर बनाने वाले cGMP को निष्क्रिय कर GMP में बदलने वाले एंजाइम PDE-5 अणु के पर काट कर निष्क्रिय कर देते हैं। अतः शिश्न में cGMP पर्याप्त मात्रा रहता है और प्रचंड स्तंभन होता है। इन्हें बेच कर फाइजर और अन्य कंपनियां खूब पैसा बना रही हैं। इसके गैरकानूनी तरीके से प्रचार के लिए 2009 में फाइजर को भारी जुर्माना भरना पड़ा था। लेकिन इन दवाओं के कुछ घातक दुष्प्रभाव भी हैं जो आपको मालूम होना चाहिये। हालांकि चेतावनी दी जाती है कि नाइट्रेट का सेवन करने वाले हृदय रोगी इस दवा को न लें। लेकिन सच्चाई यह है कि यह दवा आपके हृदय के भारी क्षति पहुँचाती है। इसे प्रयोग करने से हृदय में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है, हृदयगति अनियमित हो जाती है और दवा बंद करने के बाद भी तकलीफ बनी रहती है। इससे आपके फेफड़ों में रक्त-स्राव भी हो सकता है और सेवन करने वाले के साथी को संक्रमण की संभावना बनी रहती है। इसके सेवन से व्यक्ति अचानक बहरा हो सकता है। इसका सबसे घातक दुष्प्रभाव यह है कि इसके प्रयोग से कभी कभी संभोग करते समय ही रोगी की मृत्यु हो जाती है। शायद आपको मालूम होगा कि अमेरिका में मार्च, 1998 से जुलाई 1998 के बीच वियाग्रा के सेवन से 69 लोगों की मृत्यु हुई थी।

इंजेक्शन देता है सेटिसफेक्शन

नब्बे के दशक में आपके चिकित्सक ने स्तंभनदोष के उपचार के लिए लिंग में लगाने के इंजेक्शन भी इजाद कर लिए थे। इनकी सफलता दर 95% है। आपका चिकित्सक इसके लिए पेपावरिन, फेंटोलेमीन या एलप्रोस्टेडिल आदि के इंजेक्शन प्रयोग करता है। आपकी अनुमति मिलते ही वह आपके लिंग में सुई लगा कर तुरंत आपकी बेटरी चार्ज करेगा और हनीमून एयरवेज़ की पहली फ्लाइट में चढ़ा देगा।

एम्यूज़मेंट के लिए म्यूज़ (MEDICATED URETHRAL SYSTEM FOR ERECTION)

यह उपचार 1997 में विकसित किया गया। इस में रक्त-वाहिकाओं को फैलाने वाले एल्प्रोस्टेडिल (PGE1) की एक चावल के दाने जितनी छोटी टिकिया को मूत्रमार्ग में प्लास्टिक की एक छाटी सी सीरिंज द्वारा घुसा दिया जाता है। अब शिश्न को थोड़ा अंगुलियों से दबाते हुए सहलाएं ताकि दवा पूरे शिश्न में फैल जाये। 10 मिनट बाद आपके लिंग में प्रचंड स्तंभन होता है जो 30 से 60 मिनट तक बना रहता है। इसके भी कुछ दुष्प्रभाव हैं जैसे अविरत शिश्नोत्थान, शिश्न का टेढ़ा होना या अचानक रक्तचाप कम हो जाना आदि।

 
कृत्रिम लिंग प्रत्यारोपण
यदि सारे उपचार नाकाम हो जायें, तब भी आप निराश न हों। आपका चिकित्सक कृत्रिम लिंग-प्रत्यारोपण का साजो-सामान भी अपने पिटारे में लेकर बैठा है। यह प्रत्यारोपण दो तरह का होता है। पहला घुमाने वाला होता है। प्रत्यारोपण के बाद लिंग को घुमा कर स्तंभन की स्थिति में लाते ही यह स्थिर हो जाता है। संसर्ग के बाद घुमा कर पुनः इसे विश्राम की अवस्था ले आते हैं। यह सस्ता जुगाड़ है। दूसरे प्रकार का मंहगा होता है परंतु बिलकुल प्राकृतिक तरीके से काम करता है। संसर्ग से पहले अंडकोष की थैली में प्रत्यारोपित किये गये पंप को दबा दबा कर शिश्न में प्रत्यारोपित सिलीकोन रबर के दो लंबे गुब्बारों में द्रव्य भर दिया जाता है, जिससे कठोर स्तंभन होता है। संसर्ग के बाद अंडकोष की थैली में ही एक घुंडी को घुमाने से लिंग में भरा द्रव्य वापस अपने रिजर्वायर में चला जाता है।

रोगी और उसकी साथी को प्रत्यारोपण संबन्धी सभी बांतों और दुष्प्रभावों के बारे में बतला देना चाहिये। क्योंकि इसके भी कई घातक दुष्प्रभाव हैं। जैसे पूरी सावधानियां रखने के बाद भी यदि संक्रणण हो जाये तो रोगी को बहुत कष्ट होता है और उपचार के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है। संक्रणण के कारण गेंगरीन हो जाने पर कभी कभी शिश्न का कुछ हिस्सा काटना भी पड़ सकता है। सर्जरी के बाद थोड़े दिन दर्द रहता है पर यदि दर्द ज्यादा बढ़ जाये और ठीक न हो तो कृत्रिम शिश्न को निकालना भी पड़ सकता है। लगभग 10% मामलों में कुछ न कुछ यांत्रिक खराबी आ ही जाती है और यह काम नहीं कर पाता है। कई बार रक्त स्राव भी हो जाता है जिससे रोगी को बड़ा कष्ट होता है।

आयुर्वेदिक उपचार

स्तंभनदोष के उपचार हेतु आयुर्वेद में कई शक्तिशाली और निरापद औषधियाँ हैं जैसे, शिलाजीत, अश्वगंधा, शतावरी, केशर, सफेद मूसली, जिंको बिलोबा, जिंसेन्ग आदि। शिलाजीत महान आयुवर्धक रसायन है जो स्तंभनदोष के साथ साथ उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा आदि रोगों का उपचार करता है और साथ ही वृक्क, मूत्रपथ और प्रजनन अंगों का कायाकल्प करता है।

आप निम्न बातों को भी हमेशा ध्यान में रखिए।

• ब्लड शुगर और रक्तचाप को नियंत्रित रखिए। अगर लगातार ऐसा रखेंगे तो तंत्रिकाओं व रक्तवाहिनियों में वह गड़बड़ी नहीं आएगी जो सेक्स क्षमता को प्रभावित करती है।

• मधुमेह के मरीज तंबाकू सेवन और धूम्रपान से बचें। तंबाकू रक्तवाहिनियों को संकरा बनाकर उनमें रक्त प्रवाह को कम या बंद कर देता है।

• अधिक शराब पीनें से बचें। यह मधुमेह पीड़ितों में सेक्स क्षमता को घटाता है और रक्तवाहिनियों को क्षति पहुंचाता है। अगर पीना जरूरी है तो पुरुष एक दिन में दो पैग और महिलाएं एक से ज्यादा न लें।

• नियमित ध्यान और योग करें। सुबह घूमने निकलें। इससे आप शारीरिक रूप से स्वस्थ और तनावमुक्त रहेंगे। रात्रि में ज्यादा देर तक काम न करें, समय पर सो जायें और पर्याप्त नींद निकालें। सप्ताह में एक बार हर्बल तेल से मसाज करवाएं। मसाज से यौनऊर्जा और क्षमता बढ़ती है। यदि आपका वजन ज्यादा है तो वजन कम करने की सोचें।

• संभोग भी दो या तीन दिन में करें। घर का वातावरण खुशनुमा और सहज रखें। गर्म, मसालेदार, तले हुए व्यंजनों से परहेज करें। पेट साफ रखें।

संभोग से समाधि की ओर ले जाये अलसी

आपका हर्बल चिकित्सक आपकी सारी सेक्स सम्बंधी समस्याएं अलसी खिला कर ही दुरुस्त कर देगा क्योंकि अलसी आधुनिक युग में स्तंभनदोष के साथ साथ शीघ्रस्खलन, दुर्बल कामेच्छा, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की भी महान औषधि है। सेक्स संबन्धी समस्याओं के अन्य सभी उपचारों से सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी। बस 30 ग्राम रोज लेनी है।

• सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे।

• अलसी आपकी देह को ऊर्जावान, बलवान और मांसल बना देगी। शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी गहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी। मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा।

• अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, जिंक और मेगनीशियम आपके शरीर में पर्याप्त टेस्टोस्टिरोन हार्मोन और उत्कृष्ट श्रेणी के फेरोमोन ( आकर्षण के हार्मोन) स्रावित होंगे। टेस्टोस्टिरोन से आपकी कामेच्छा चरम स्तर पर होगी। आपके साथी से आपका प्रेम, अनुराग और परस्पर आकर्षण बढ़ेगा। आपका मनभावन व्यक्तित्व, मादक मुस्कान और षटबंध उदर देख कर आपके साथी की कामाग्नि भी भड़क उठेगी।

• अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन एवं लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे शक्तिशाली स्तंभन तो होता ही है साथ ही उत्कृष्ट और गतिशील शुक्राणुओं का निर्माण होता है। इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करते हैं जिससे सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है। नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ओमेगा-3 फैट के अलावा सेलेनियम और जिंक प्रोस्टेट के रखरखाव, स्खलन पर नियंत्रण, टेस्टोस्टिरोन और शुक्राणुओं के निर्माण के लिए बहुत आवश्यक हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार अलसी लिंग की लंबाई और मोटाई भी बढ़ाती है।




इस तरह आपने देखा कि अलसी के सेवन से कैसे प्रेम और यौवन की रासलीला सजती है, जबर्दस्त अश्वतुल्य स्तंभन होता है, जब तक मन न भरे सम्भोग का दौर चलता है, देह के सारे चक्र खुल जाते हैं, पूरे शरीर में दैविक ऊर्जा का प्रवाह होता है और सम्भोग एक यांत्रिक क्रीड़ा न रह कर एक आध्यात्मिक उत्सव बन जाता है, समाधि का रूप बन जाता है।








कैंसर रोकें
इस बारे में वैज्ञानिक स्तर पर एक राय बन चुकी है कि उपयुक्त आहार और जीवनशैली का सही प्रबंधन करके कैंसर को काफी हद तक रोका जा सकता है ।
कैंसर आमतौर पर बहुत धीरे-धीरे पनपता है और जिसके लिए किसी व्यक्ति के जीवनकाल का काफी लम्बा हिस्सा चाहिए। इसका अपवाद है बचपन में ही पनप जाने वाले कैंसर जो मस्तिष्क या हड्डियों के पनपते हुए ऊतकों को प्रभावित करते हैं। ये बीमारियां आमतौर पर म्यूटेशन की मौजूदगी (गड़बड़ी वाले जीन) से संबंधित होती है, और ये जीन माता या पिता किसी से भी आ सकते हैं। जीवन में बाद में होने वाले कैंसर भी इन्हीं विरासत में मिले म्यूटेशन के कारण होते हैं, लेकिन आमतौर पर ट्यूमर की कोशिकाओं में बड़ी संख्या में म्यूटेशन होते हैं जो जीवन काल के दौरान हासिल होते रहते हैं। ये कथित सोमैटिक म्यूटेशन पर्यावरणीय रसायनों के कारण होते हैं जो शरीर के ब्लू प्रिंट - डी एन ए को नुकसान पहुंचाते हैं। डी एन ए को क्षति पहुंचाने वाले अणु खुद शरीर ही बनाने लगता है। उदाहरण के लिए, ऑक्सीजन रखने वाले अणु संक्षिप्त समय के लिए रसायन वाली एक विशेष संरचना हासिल कर लेते हैं जिससे वे डी एन ए के साथ बड़े दमखम के साथ अंतःक्रिया करने लगते हैं। ये ‘फ्री रैडिकल’ सांस लेने की सामान्य प्रक्रिया के दौरान पैदा होते रहते हैं। एंटीऑक्सीडैंट तत्व अपने अनूठे प्राकृतिक ठिकानों और अन्य पोषक तत्वों के साथ कुदरती मिश्रण बनाए रहते हैं और फलों और सब्जियों, साबुत अनाज़ों तथा भारतीय मसालों में मौजूद होते हैं। ये फ्री रैडिकल तत्वों को खत्म करके डी एन ए को ज्यादा क्षति पहुंचने से बचाते हैं। ये शरीर के ब्लू प्रिंट को नुकसान नही पहुंचने देते। ये भी दर्ज किया गया है कि भारत के शुद्ध और बिना मिलावट वाले मसाले और सब्जियां उन एंजाइम्स को रोक देती है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

इस तरह आप बच सकते हैं - डायबिटीज, ब्लड प्रैशर, हार्ट अटैक, स्ट्रोक और कैंसर से …

योग से डायबिटीज दूर

इन दिनों डायबिटीज के मरीजों की संख्या में दिन-ब-दिन बढ़ोतरी हो रही है। वक्रासन, कुर्मासन, योगमुद्रा, शलभासन, धनुरासन आदि के माध्यम से काफी हद तक डायबिटीज को दूर किया जा सकता है।
लोनावला स्थित केवल्यधाम नामक योग संस्था में वैज्ञानिकों ने शोध कर पाया कि योगासनों के माध्यम से पूर्ण रूप से डायबिटीज को कंट्रोल किया जा सकता है। हालांकि इसके लिए मरीजों को नियमित एक घंटे योग करना जरूरी है। इसके साथ अपनी गतिविधियों पर भी नियंत्रण रखना होता है। पेनक्रियाज (क्लोम ग्रथि) ही रक्त में बढ़ी हुई इंसुलिन को नियंत्रित करती है, जिससे डायबिटीज को कंट्रोल किया जा सकता है। योगासन इन पेनक्रियाज पर जोर डालते हुए उसे दोबारा इंसुलिन के लिए तैयार करते हैं।
योग से तैयार होता है इंसुलिन
योग न सिर्फ डायबिटीज के लिए बल्कि वह अन्य शारीरिक बीमारियों को भी दूर करते हैं। हमारे शरीर में कोशिकाएं ग्लूकोज को तैयार नहीं कर पाती। इसके लिए इंसुलिन नामक हार्मोन की आवश्यकता पड़ती है, जो पेनक्रियाज के कमजोर होने से बराबर कार्य नहीं कर पाती हैं। आसनों का सीधा प्रभाव कोशिकाओं व पेनक्रियाज पर पड़ता है। डायबटिज खान-पान और तनाव को प्रमुख कारण माना गया है। खाने में कार्बोहाइड्रेट्स की मात्रा, अधिक शकर, मीठा और चॉकलेट आदि से होता है।
योग करो, रहो स्वस्थ
यूनिवर्सिटी के योग केंद्र के एचओडी डॉ. एसएस शर्मा बताते हैं कि योग के कुछ ऎसे आसन होते है जिनका असर सीधा शरीर के उन भागों पर पड़ता हैं, जो इंसुलिन बनाने में सहयोग करते हैं। साथ ही पेनक्रियाज को नियंत्रण में रखने की क्षमता भी बढ़ाते है। डायबिटीज को कंट्रोल करने वाले आसन शरीर के लिए बेहद लाभदायक हैं, जिसे नियमित करने से स्वस्थ रहा जा सकता है।

डायबिटीज का रोग बड़ा बुरा, बचने के रास्ते जानें जरा


यूं तो डायबिटीज दुनिया भर में फैली है, मगर भारत आज उसका सबसे बड़ा गढ़ बना हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण 21वीं सदी की जीवनशैली है। यह सोच सरासर गलत है कि डायबिटीज अधिक मीठा खाने से होती है। डायबिटीज उपज की षड्यंत्री कड़ियों में आधुनिक पुश-बटन लाइफस्टाइल का सबसे बड़ा हाथ है। जीवन पर जैसे-जैसे यांत्रिकता का वर्चस्व बढ़ा है, शारीरिक मेहनत-मशक्कत घटी है, खानपान के स्वाद बदले हैं, वैसे-वैसे डायबिटीज के रोगियों की संख्या बढ़ती गई है। गांववासियों की तुलना में शहरियों में डायबिटीज के पांच गुना अधिक होने के पीछे भी दोषयुक्त जीवनशैली ही कसूरवार है।

डायबिटीज रोकथाम के जन-अभियान में अगर हमें कामयाबी पानी है तो पहली शर्त इन षड्यंत्रकारी कड़ियों के बाबत साफ-सुथरी समझ विकसित करने की है। नवीनतम वैज्ञानिक शोध के अनुसार डायबिटीज की उपज में निम्न

जोखिमकारी तत्व प्रमुख रूप से जुड़े हैं : सबसे बड़ा कारण शारीरिक निष्क्रियता जैसे-जैसे जीवन रिमोट कंट्रोल, कॉर्डलैस और मोबाइल फोन, लैपटॉप और डेस्कटॉप, ऐलिवेटर और ऐस्केलेटर का गुलाम बनता गया है, वैसे-वैसे जीवन में न सिर्फ मेहनत-मशक्कत बल्कि शारीरिक हलचल के अवसर भी घटते जा रहे हैं। इसके फलस्वरूप शरीर में बनने वाला इंसुलिन अपना पैनापन खो देता है, वजन बढ़ते समय नहीं लगता और नतीजतन ब्लड शुगर पर से नियंत्रण छूटने का रिस्क लगातार बढ़ता है।

स्वास्थ्य और सौंदर्य का दुश्मन मोटापा : डायबिटीज उपज की जैव-रासायनिक कड़ियों में वजन बढ़ने का बड़ा हाथ है। टाइप-2 डायबिटीज के 80 प्रतिशत रोगी स्थूल शरीर के होते हैं। अध्ययनों में पुष्टि हुई है कि बॉडीमास इंडेक्स (बी़एम़आई़) के 25 से अधिक होने पर डायबिटीज उपजने की आशंका बढ़ती है। मोटापा इंसुलिन की ताकत घटाता है। शरीर में बनी इंसुलिन हमारी कोशिकाओं के द्वार पर ग्लुकोज के लिए लगे तालों को ठीक से खोल नहीं पाती। इसी से खून में ग्लुकोज का स्तर बढ़ता है। डायबिटीज के शुरू में वजन घटाने मात्र से शुगर पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

भूमिका ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्रॉल की: अगर ब्लड प्रेशर बढ़कर 140/90 से ऊपर चला जाए, अच्छे स्वास्थ्य का सूचक एच़डी़एल़ कोलेस्ट्रॉल घटकर 35 मिलीग्राम प्रति डेसीलिटर से कम रह जाए, ट्राइग्लिसराइड बढ़कर 250 मिलीग्राम प्रतिशत से ऊपर चला जाए तो समझ लें कि डायबिटीज दस्तक दे रही है।

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी! वर्तमान जीवनशैली में अगर कुछ दूसरी षड्यंत्री कड़ियां भी जुड़ जाएं तो डायबिटीज का जोखिम और बढ़ जाता है। इन पर किसी का वश तो नहीं चलता, लेकिन इनकी उपस्थिति में व्यक्ति को डायबिटीज के प्रति अतिरिक्त रूप से सावधान रहने की जरूरत होती है :

रक्त संबंधियों में डायबिटीज : परिवार में माता-पिता या भाई-बहन को डायबिटीज हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को डायबिटीज होने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है। इस जोखिम से निबटने का यही तरीका है कि जीवनशैली के प्रति थोड़ी अतिरिक्त चौकसी बरतें।

स्त्रियों में जोखिम के विशेष चिह्न् : अगर किसी स्त्री को पूर्व में पॉलीसिस्टिक ओवेरियन डिजीज रही हो, गर्भवती होने पर ब्लड शुगर बढ़ गया हो या उसने नौ पाउंड से अधिक वजन के बच्चों को जन्म दिया हो, तो उसे जीवनभर डायबिटीज के प्रति चौकस रहना जरूरी है।

निजात पाएं कैसे: डायबिटीज से बचने के लिए सबसे कारगर तो यही है कि रक्त की जांच में शुगर के स्तर की तत्काल जांच कराई जाए। समय रहते विशेषज्ञ डॉक्टर की सलाह मिलने पर आप खानपान और जीवनशैली में मामूली बदलाव करके ज्यादा बड़े खतरों को टाल सकते हैं।

खुद बनिए अपने शिक्षक : डायबिटीज़ का मरीज़ अगर इस बीमारी के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी रखता है, तो वह इससे लड़ने की ज्यादा कूवत रखता है। इसलिए बीमारी के बारे में पढ़ना हमेशा फायदेमंद ही साबित होगा। जब एक जागरूक मरीज़ अपने इलाज में पूरी रुचि रखेगा, तो उसमें बीमारी से मात न खाने की हिम्मत बनी रहेगी। ये बहुत अहम है।

वज़न घटाइए : अगर आप मोटापे के शिकार हैं, तो वज़न घटाइए। आमतौर पर जो लोग शारीरिक श्रम कम करते हैं, उनमें वज़न बढ़ने की प्रवृत्ति और फिर डायबिटीज़ का शिकार होने का खतरा ज्यादा होता है। कोई शख्स अगर अपने कुल वज़न का 5.7% भी कम कर ले, तो उसे डायबिटीज़ होने का खतरा 50% तक कम हो जाता है। लेकिन ये भी याद रखिये कि डायबिटीज़ मोटे-पतले, बच्चों, युवा, वृद्ध हर किसी को हो सकती है।

सक्रिय रहिएः अगर हर दिन आधे घंटे भी कसरत करेंगे, तो डायबिटीज़ की संभावना न के बराबर रह जाएगी। घर का छोटा मोटा काम खुद करने, सीढ़ी चढ़ने-उतरने या पैदल जाकर आसपास के काम निपटाने की आदत हो, तो अतिरिक्त समय देकर पार्क में जाने या जॉगिंग करने की खास जरूरत नहीं रह जाएगी। नहीं, तो सुबह की सैर पर जाने और पार्क में व्यायाम करने का नियम बनाकर सख्ती से उस पर अमल करना चाहिए।

शुगर लैवल की मॉनिटरिंग : जिन लोगों के परिवार में बुजुर्गो को डायबिटीज़ होती रही है, उन्हें इससे बचने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतने की ज़रूरत है। उन्हें खून की नियमित जांच करवाकर शुगर लैवल को नियंत्रित रखने का जतन करना चाहिए। शुगर लैवल की मॉनिटरिंग से ये संभव है। शुगर लैवल का चार्ट देखकर आप विशेषज्ञ से या मेडिकल जर्नल्स और वेबसाइट्स से खुद ही, इसे नियंत्रित रखने के टिप्स ले सकते हैं।

ये न समझें कि इंसुलिन का स्तर ऊंचा होने पर डायबिटीज़ नहीं होगी। असल में डायबिटीज़ का होना या न होना इंसुलिन के लैवल पर नहीं, बल्कि उसकी प्रभावशीलता पर निर्भर करता है। इंसुलिन का स्तर अक्सर उन लोगों में गड़बड़ा जाता है, जिन्हें खुद को अलग जीवनशैली में ढालना पड़ता है। ऐसे लोगों को समय समय पर शुगर टेस्ट कराते रहना चाहिए।

गर्भवती महिलाएं क्या करें : गर्भवती महिलाओं को डायबिटीज़ होने पर, कुल कैलोरी का 15 से 20 % वसायुक्त भोजन से ग्रहण करना चाहिए। इस लिहाज से खाने में जैतून और सरसों तेल, बादाम और अखरोट शामिल करना चाहिए। लेकिन तर-भोजन, घी, तला-भुना खाना, पेस्ट्रीज़ वगैरह से परहेज़ करना चाहिए। डायबिटीज़ से बचने के लिए गर्भवती महिलाओं को हर तीन घंटे बाद कुछ न कुछ खाना चाहिए। मतली और मॉर्निग सिकनैस का असर घटाने के लिए सुबह-सुबह काबरेहाइड्रेट से भरपूर स्नैक्स लेने चाहिए।

गर्भवती महिलाओं में डायबिटीज़ का असर होने वाले शिशु पर भी पड़ सकता है। इसका पता अक्सर गर्भधारण के 28वें सप्ताह तक चलता है। इसका डॉक्टरी इलाज तो है ही, साथ-साथ खानपान में बदलाव और नियमित सैर से भी फायदा होता है। इस दरम्यान भ्रूण के विकास के लिए अतिरिक्त इनर्जी की जरूरत भी होती है। इसके लिए ठोस आहार की मात्र बढ़ानी चाहिए। फाइबर युक्त भोजन को तवज्जो देनी चाहिए। फल, सब्जी और दालों के संतुलित आहार से ब्लड शुगर और ग्लूकोज़ का लैवल सही रहता है। प्रोटीन की अतिरिक्त ज़रूरत के लिए दूध, अंडा, मीट, मछली, दाल, सोयाबीन, और मूंगफली लेना चाहिए।

योग की भूमिका : डायबिटीज़ से पार पाने में योगासन का योगदान है। व्यायाम से शरीर में ग्लूकोज़ का समावेश संतुलित और बेहतर रहता है। नियमित योगासन से शरीर का मेटाबॉलिज्म, अंत:स्नवी तंत्र और नर्वस सिस्टम फिट रहता है। योगमुद्रासन से पेट की कसरत होती है, जो कब्ज मिटाने और पाचन में मदद करती है। मेरु-चक्रासन और धनुरासन भी कारगर हैं।

Wednesday, November 3, 2010

मछली या अलसी !! किसे चुनें किसे न चुनें?? एक निष्पक्ष व तुलनात्मक अध्ययन

मछली या अलसी !! किसे चुनें किसे न चुनें?? एक निष्पक्ष व तुलनात्मक अध्ययन
मछली के बड़े व्यवसायी और उनके समर्थक कई दशकों से यह सिद्ध करने की कोशिश करते आये हैं कि वानस्पतिक ओमेगा-3 ए.एल.ए. जो एक आवश्यक वसा अम्ल है ( यानी यह शरीर में निर्मित नहीं होता है व इसे भोजन द्वारा ही ग्रहण करना नितांत आवश्यक है) शरीर में ई.पी.ए और डी.एच.ए. (जो मछलियों में पाये जाते हैं) का वांछित निर्माण करने में सक्षम नहीं है। यदि ऐसा है तो इसका क्या सबूत हैं, जब भी उनसे पूछा जाता है तो वे ठीक से जवाब दे नहीं पाते हैं या कभी कहते हैं की ए.एल.ए. का बहुत ही थोड़ा भाग ई.पी.ए. और डी.एच.ए. में परिवर्तित हो पाता है, कभी कहते हैं कि कुछ लोग ई.पी.ए. और डी.एच.ए. का निर्माण नहीं कर पाते हैं।

ये प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ई.पी.ए. हमें स्वस्थ और निरोग रखने हेतु आइकोसेनोइड हार्मोन बनाने में सहायक है और डी.एच.ए. मस्तिष्क व ऑखों के विकास तथा मस्तिष्क की सारी कार्य प्रणाली, शुक्राणुओं के निर्माण, हृदय की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। यदि हमारा शरीर ए.एल.एसे ई.पी.ए और डी.एच.ए. बनाने में सक्षम है तो हमें मछली या इसका तेल खाने की कोई आवश्यकता नहीं है परन्तु यदि हमारा शरीर ई.पी.ए. और डी.एच.ए. कोबनाने में सक्षम नहीं है तो हम सभी को मछली और उनका तेल खाना नितान्त आवश्यक है।

मछलियों के व्यवसाइयों और उनको समर्थन देने वालों का समुदाय बहुत अमीर,बड़ा और प्रभावशाली हैऔर अपने स्वार्थों के निहित कई दशकों से निरंतर अंतरराष्ट्रीय मीडिया, सरकारी संस्थाओं के उच्चाधिकारियों, चिकित्सकों और राज नेताओं पर पानी की तरह दौलत लुटा रहा है। ये सारे लोग पूरी तरह इन व्यवसाइयों के चंगुल में हैं जिसके परिणाम स्वरूप सारे पत्र पत्रिकाएं, हैल्थ जरनल्स मछली की प्रशंसा करने वाले लेखों से भरे पड़े हैं। सारे टी.वी. चेनलों पर समय समय पर बड़े बड़े पत्रकार और चिकित्सक मछली की तारीफों के पुल बांधते दिखाई देते हैं तथा यथार्थ व वैज्ञानिक लगने वाले पर आधे झूंठे तथ्य प्रस्तुत कर जनता को गुमराह करते हैं। मछली तेल के संपुट मुंहमांगे दामों पर बेचे जा रहे हैं। आप देखिये कि मछली ओमेगा-3 की पर्याय बन गई है और आवश्यक वसा अम्ल ओमेगा-3 के महान वानस्पतिक स्रोत अलसी और चिया को कोई जानता ही नहीं है। अलसी और चिया की शोध, जागरुकता और प्रोत्साहन पर शायद ही कोई सरकार दौलत खर्च करती है। मेडीकल पाठ्यक्रम व पुस्तकों पर से चुपचाप अलसी और चिया के नाम मिटा दिये गये हैं।

आइये आज निष्पक्ष होकर हम यथार्थ जानने की कोशिश करते हैं। हमने ओमेगा-3 वसा अम्लों पर हुए परीक्षणों के बारे में काफी अध्ययन किया है, हमारी एन जी ओ संस्था “अलसी चेतना यात्रा” द्वारा की गई शोध और राष्ट्रीय स्तर पर किये गये सर्वेक्षण के नतीजों को भी ध्यान में रखा है और उडो इरेस्मस की पुस्तक “फैट्स दैट हील एण्ड फैट्स दैट किल” को विस्तार से पढ़ा है। तथ्य यह बताते हैं कि पिछले कई दशकों से हमारे भोजन में ए.एल.ए. की मात्रा बहुत ही कम हो गई है, अमेरिका की स्थिति तो सबसे ही खराब है। जब हमारे शरीर में ए.एल.ए की मात्रा बहुत ही नगण्य है तो ई.पी.ए. और डी.एच.ए. का निर्माण भी तो उसी अनुपात में होगा।

जब 1950 में डॉ. योहाना बुडविज ने वसा अम्लों को पहचानने की पेपर क्रोमेटोग्राफी की तकनीक विकसित की और ओमेगा-3 आवश्यक वसा अम्ल ए.एल.ए की खोज की थी। डॉ. बुडविज ने पता लगाया था कि ए.एल.ए. के महान स्रोत अलसी, अखरोट और चिया के बीज है।

डॉ . बुडविज का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए सात बार चयनित हुआ था। डॉ . बुडविज ने ट्रांसफैट युक्त पूर्ण या आंशिक हाइड्रोजिनेटेड वसा अम्ल यानी मार्जरीन या हिन्दी भाषा में वनस्पति घी के हमारे शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में खूब अध्ययन किया था । वे मार्जरीन को प्रतिबंधित करना चाहती थी जिसके कारण मार्जरीन बनाने वाले उनके दुश्मन बन गये थे। मछली व्यवसाइयों का समुदाय भी डॉ. बुडविज की खोज से बहुत परेशानी में था क्योंकि वह मछली नहीं बल्कि अलसी को प्रोत्साहन दे रही थी। इसलिए उन्होने भी बुडविज के विरूद्ध चक्रव्यूह रचा, उन्हे प्रताड़ित किया और उनके विरुद्ध मुकदमे दाखिल किये। पर अंत में विजय सत्य की ही हुई। आज ठण्डी विधि द्वारा तैयार हुआ स्वास्थ्यप्रद अलसी का तेल मिलने लगा है और लोग इसे अपना रहे हैं।

हमें अक्टूबर, 2002 की ब्रिटिश जरनल ऑफ न्यूट्रीशन में पुरुषों और स्त्रियों पर हुए दो परिक्षणों की विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने को मिली। पहला परीक्षण स्त्रियों पर किया गया। स्त्रियों ने अपने शरीर में विद्यमान ए.एल.ए. के 36% भाग को लंबी लड़ वाले ओमेगा-3 वसा अम्लों क्रमशः 21% ई.पी.ए., 6% डी.पी.ए. व 9% डी.एच.ए. में परिवर्तित किया। दूसरे परीक्षण में पुरुषों ने स्त्रियों के मुकाबले आधे 16% ए.एल.ए. को क्रमशः 8% ई.पी.ए व 8% डी.एच.ए. परिवर्तित किया। स्त्रियों ने पुरुषों के मुकाबले दोगुने ए.एल.ए. को ई.पी.ए व डी.एच.ए. में परिवर्तित किया शायद इसलिए कि उसे दो मस्तिष्कों और दो दृष्टि-पटलों (स्वयं तथा उसके शिशु के) को पोषण देना होता है।

इन परीक्षणों में यह भी देखा गया कि कुछ स्त्रियों में, जो परिवार नियोजन हेतु इस्ट्रोजन की गोलियां नियमित ले रही थी, ए.एल.ए. का परिवर्तन शीघ्र तथा सहजता से हुआ। शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पर पहुंचे कि इस्ट्रोजन ए.एल.ए. के परिवर्तन को गति देते हैं तथा रजोनिवृत्ति के बादस्त्रियों को और पुरुषों को यदि थोड़ा इस्ट्रोजन दिया जाये तो ए.एल.ए. का परिवर्तन शीघ्र व सहज होगा।

अलसी का नियमित सेवन करने वालों के शरीर में पर्याप्त लिगनेन रहता है क्योंकि अलसी लिगनेन का सबसे बड़ा स्रोत है। लिगनेन इस्ट्रोजन का प्रतिरूप है और दुर्बल इस्ट्रोजन की तरह कार्य करता है व स्त्रियों में रजोनिवृत्ति के पहले यह इस्ट्रोजन की मात्रा कम करता है तथा रजोनिवृत्ति बाद इस्ट्रोजन की मात्रा बढ़ाता है। अतः अलसी सेवन करने वालों के शरीर में पर्याप्त इस्ट्रोजन का प्रतिरूप लिगनेन और भारी मात्रा में ए.एल.ए. भी होता है और ए.एल.ए. बड़ी सहजता व शीघ्रता से ई.पी.ए व डी.एच.ए. का निर्माण करता है। साथ में लिगनेन एक बलवान विषाणु-रोधी, कीटाणु-रोधी, फफूंद-रोधी, कैंसर-रोधी, कॉलेस्ट्रोल-रोधी, ल्यूपस-रोधी, डायबिटीज-रोधी, शोथ-हर और प्रति-ऑक्सीकारक भी है। यह एक महान पोषक तत्व है। यह अलसी खाने के अतिरिक्त लाभ हैं।

शोधक्रताओं ने उपरोक्त परीक्षणों के आधार गणना करके यह बताया कि यदि पुरुषों को 3 बड़ी चम्मच और स्त्रियों को 2 बड़ी चम्मच अलसी तेल नियमित दिया जाये तो उनके शरीर में क्रमशः मछली के 11 और 17 बड़े केप्स्यूल जितना इ.पी.ए. और डी.एच.ए. प्रति दिन बनेगा।

मछली के संपुट खाने में एक और बड़ी परेशानी है। इसमें पारा, पी.सी.बी., कीटाणुनाशक आदि की मात्रा प्रदूषण के रूप में रहती है। हॉलांकि इन दूषित पदार्थों को निकालने के लिए मछली के तेल को परिष्कृत किया जाता है। लेकिन परिष्कृत करने की प्रक्रिया में मछली का तेल को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है जिससे वह और ज्यादा खराब तथा विषैला हो जाता है,कारण यह है कि ई.पी.ए.और डी.एच.ए. प्रकाश, ऑक्सीजन और तापमान के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं, ए.एल.ए से भी पांच गुना ज्यादा। अत: खराब और टॉक्सिक मछली तेल के संपुट खाने से अच्छा है हम स्वच्छ जल में पैदा हुई मोटी मछलियां खायें या जैविक ठण्डी विधि द्वारा निकाला हुआ एकल-निष्कासित अलसी का तेल खायें।
शरीर में ई.पी.ए. और डी.एच.ए. के निर्माण को निम्न घटक प्रभावित करते हैं।
• यदि शरीर में ओमेगा-6 वसा अम्ल की मात्रा ज्यादा होती है तो ई.पी.ए.और डी.एच.ए. का निर्माण कम होता है। परन्तु यदि ओमेगा-3 ए.एल.ए ज्यादा हो तो स्वाभाविक है कि ज्यादा ई.पी.ए. और डी.पी.ए. बनेगा।
• विटामिन बी-3, बी-6, और सी तथा जिंक और मेग्नीशियम इनके निर्माण के लिए आवश्यक है और यदि शरीर में इनकी कमी है तो निर्माण कम होगा।
• यदि हमारे भोजन में कार्ब की मात्रा ज्यादा है तो भी ई.पी.ए.और डी.एच.ए. का निर्माण कम होगा लेकिन यदि हम आहार में प्रोटीन ज्यादा ले तो इनका निर्माण ज्यादा होगा।