Tuesday, August 17, 2010

मानव की मधुमेह पर विजय की अमर गाथा.........इन्सुलिन की खोज

उच्च-रक्तचाप की परिभाषा


उच्च-रक्तचाप वह रोग है जिसमें हृदय के संकुचन की अवस्था में रक्त वाहिकाओं में रक्त का दबाव पारे के 140 mm से ज्यादा या हृदय के विस्तारण की अवस्था में 90 mm से ज्यादा रहता है या दोनों अवस्थाओं में ज्यादा रहता है। यह दो प्रकार का होता है। पहला प्रमुख ( Essential) उच्च-रक्तचाप जिसमें हम रक्तचाप बढ़ने का कोई कारण नहीं ढूंढ़ पाते हैं, रक्तचाप के 85% से 90% रोगी इसी क्षेणी में आते हैं। अगला है द्वितीयक (Secondary) उच्च-रक्तचाप जिसमें रक्तचाप का उपचार योग्य कोई कारण विद्यमान रहता है। चूंकि आरंभिक अवस्था में रोगी में कोई लक्षण नहीं होते हैं, इसलिए इसे “मूक कातिल” भी कहते हैं।


मधुमेह और उच्च-रक्तचाप दोनों ही रोगों में हृदय रोग, वृक्क रोग तथा अन्य घातक जटिलताओं का जोखिम रहता है। यदि रोगी में दोनों एक साथ डेरा डाल लें तो उपरोक्त जटिलताओं का जोखिम दुगुना नहीं बल्कि एक और एक ग्यारह की तर्ज पर बढ़ेगा। दुर्भाग्य वश उच्च रक्तचाप रोग की संभावना सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा डायबिटीज के रोगी में कहीं ज्यादा रहती है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप के साथ यदि रोगी में रक्त-वसा की विकृतियां (Dyslipidemia), केन्द्रीय स्थूलता (Central Obesity) और एथेरोस्क्लिरोसिस भी विद्यमान हो तो इस अवस्था को सिन्ड्रोम-एक्स (Syndrome-X) कहते हैं।


यदि डायबिटीज के रोगी को उक्त रक्तचाप भी है तो कोरोनरी धमनी रोग, हार्ट फेल्यर या हृदयवात, पेरीफ्रल वेस्कूलर रोग, क्षणिक अरक्तता दौरा (Transient Ischemic Attack) और स्ट्रोक का जोखिम अपेक्षाकृत काफी ज्यादा रहता है। डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप रोग की उपस्थिति नेफ्रोपैथी, रेटीनोपैथी आदि जटिलताओं की संभावना को और प्रबल बनाती है। यदि डायबिटीज के रोगी को उच्च रक्तचाप रोग भी है तो रेटीनोपैथी के लक्षण जल्दी दिखाई देते हैं। यदि रक्तचाप पर कड़ा नियंत्रण रखा जाये तो रेटीनोपैथी की प्रगति धीरे होगी। डायबिटीज के रोगी को यदि उच्च रक्तचाप भी हो तो नेफ्रोपैथी तेजी से प्रगति करेगी। नेफ्रोपैथी का आरंभिक लक्षण सूक्ष्मश्वेतकमेह या माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया है। ऐसा देखा गया है कि यदि रक्तचाप ज्यादा है तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव भी ज्यादा होगा। यदि रक्तचाप और रक्त शर्करा का नियंत्रण प्रभावशाली है तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव रूक जायेगा या न्यूनतम हो जायेगा। यदि डायबिटीज के उन रोगियों, जिनमें पहले से ही वृक्क रोग प्रगतिशील है, और उन्हें उच्च रक्तचाप रोग भी हो जाता है और अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है तो उसमें वृक्क रोग अन्तिम अवस्था की ओर काफी शीघ्रता से प्रगति करेगा।


कारण


कारण जिन्हें हम बदल नहीं सकते हैं।


1- उम्र 2- प्रजाति 3- जीवन शैली 4- आनुवंशिक 5- लिंग।


कारण जिन्हें हम बदल सकते हैं।


1- स्थूलता 2- सोडियम संवेदनशीलता 3- मदिरापान 4- गर्भ निरोधक गोलियां 5- शारीरिक


निष्क्रियता (Sedantary Life) 6- दवाइयां।

आरंभिक लक्षण

आरंभिक अवस्था में सामान्यतः कोई लक्षण नहीं होते हैं। कुछ रोगी शुरू में चक्कर, चेहरा तमतमाना, सरदर्द, थकावट, मिचली, वमन, नकसीर और बैचेनी जैसे लक्षण बताते हैं। चौथी हृदय ध्वनि भी आरंभिक संकेत हैं। बाद में दृष्टि में धुंधलापन, श्वासकष्ट (Dysnoea), हृदयाघात (Heart Attack), हृदपात (Heart Failure), क्षणिक अरक्तता दौरा (Transient Ischemic Attack), वृक्कपात (Kidney Failure), दृष्टि हीनता, परिसरीय वाहिकीय रोग (Peripheral Vascular Disease) के कारण चलते समय पैरों में दर्द आदि।


उच्च-रक्तचाप के लगभग 1% रोगी तभी चिकित्सक से संपर्क करते हैं जब रक्तचाप बहुत बढ़ जाता है जिसे दुर्दम उच्च-रक्तचाप (Malignant Hypertension) कहते हैं। दुर्दम उच्च-रक्तचाप में विस्तारण रक्तचाप 140 mm से ऊपर रहता है और स्ट्रोक या रक्तस्राव का बहुत जोखिम रहता है । इस अवस्था का तुरंत सघन उपचार आवश्यक है।


याद रहे रक्तचाप वर्षों तक चुपचाप लक्षण रहित बना रह सकता है और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों जैसे हृदय, आँखें, वृक्क, मस्तिष्क आदि को चुपचाप क्षतिग्रस्त करता रहता है। कई बार हमें रक्तचाप होने की जानकारी तभी निलती है जब हमें हार्ट अटेक या स्ट्रोक होता है या इंश्योरेंस हेतु रक्तचाप नपवाते हैं।


निदान


भूतकाल, पारिवारिक, व्यक्तिगत और चिकित्सा इतिहास बारीकी से पूछिये।

भौतिक निरीक्षण- रक्तचाप नापें, कलाई, टखना और पैर की नब्ज़, हृदय, फेफड़े, उदर, रेटीनोपैथी आदि।

मूत्र परीक्षण- विशिष्ट घनत्व (Specific Gravity), सूक्ष्म श्वेतकमेह (Microalbuminuria), शर्करा, कास्ट आदि।

रक्त परीक्षण- संपूर्ण रक्त गणना (CBC), विद्युत अपघट्य (Eletrolytes), यूरिया, क्रियेटिनीन, जी.एफ.आर. (Glomerular Filtration Rate), लिपिड प्रोफाइल, थायराइड के T3 T4 TSH टेस्ट आदि।

छाती का एक्सरे, अल्ट्रासाउन्ड, CT स्केन, ECG, 2-डी इको, कलर डोपलर आदि।


डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप के कुप्रभाव


सूक्ष्म वाहिका कुप्रभाव या Microvascular complications

• वृक्क रोग
• स्वायत्त नाड़ी-दोष (Autonomic Neuropathy) सेक्स संबंधी दोष और ऑर्थ्रोस्टेटिक हाइपरटेंशन।
• नैत्र रोग ग्लूकोमा, डायबीटिक रेटीनोपैथी और इसके फलस्वरूप दृष्टिहीनता।


दीर्घ वाहिका कुप्रभाव या Macrovascular complications

• हृदय रोग कोरोनरी धमनी रोग, रक्ताधिक्य हृदयवात या कंजेस्टिव हार्ट फेल्यर और कार्डियोमायोपैथी।
• मस्तिष्क रोग स्ट्रोक।
• परिसरीय वाहिकीय रोग (Peripheral Vascular Disease). पैरों में फोड़े, पैर विच्छेदन (Foot Amputation) आदि।


कुछ विशेष पहलू



डायबिटीज के रोगी में उच्च रक्तचाप रोग का उपचार आरंभ करने के पहले मैं आपको बतलाना चाहता हूं कि यह उच्च रक्तचाप का कारण कहीं अल्प-रक्तशर्करा (Hypoglycemia) तो नहीं हैं। कभी-कभी डायबिटीज के रोगी की रात्री में शर्करा कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप सुबह रक्तचाप बढ़ जाता है और नींद से जागते ही सरदर्द हो सकता है। इसका कारण अल्प रक्त-शर्करा की वजह से एड्रीनेलिन, कोर्टिजोल, ग्रोथ हार्मोंन, ग्लुकागोन आदि हार्मोंन्स के स्राव का बढ़ना है। अतः दवाईयां या इन्सुलिन लेने वाले डायबिटीज के रोगी में रक्तचाप का उपचार शुरू करने के पहले यह सुनिश्चित कर लें कि उच्च रक्तचाप का कारण कहीं हाइपोग्लाइसीमिया तो नहीं है।


डायबिटीज के कुछ रोगियों में ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी के कारण पोस्चुरल हाइपोटेंशन होता है। यदि ऐसी संभावना का आभास हो तो चिकित्सक को चाहिये कि वह रक्तचाप का माप दोनों बाहों में रोगी को लेटाकर बैठा कर और खड़ा करके तीनों अवस्थाओं में ले।


डायबिटीज में रोगी के रक्तचाप का कड़ा नियंत्रण रखना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये। चिकित्सक को हर बार डायबिटीज के रोगी का रक्तचाप नापना चाहिए। रोगी को स्पष्ट हिदायत दे देनी चाहिए कि उसे अपनी शर्करा और रक्तचाप आजीवन नियंत्रण में रखने है। जहां तक संभव हो रक्तचाप 120/80 के आस-पास रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश कई रोगी ऐसा सोचते हैं कि यदि उन्हें रक्तचाप के सामान्य लक्षण जैसे सर दर्द आदि नहीं है तो रक्तचाप सामान्य ही होगा और वे दवा लेना बन्द कर देते हैं। लेकिन यह गलत है उच्च रक्तचाप शांत रहकर वार करने वाला शत्रु है। कई बार रक्तचाप बहुत ज्यादा होते हुये भी रोगी में कोई लक्षण नहीं होते। यदि हम यह सोचे कि रक्तचाप के लक्षण दिखाई देने पर उपचार शुरू करेंगे तो यह बड़ा त्रुटि पूर्ण निर्णय होगा क्योंकि तब तक वह शरीर को काफी क्षति पहुंचा चुका होता है।


रक्तचाप नापने के संबंध में सावधानियाः-
• रक्तचाप नापने के पहले यह सुनिश्चित कर ले कि रोगी ने पिछले 30 मिनट में केफीन, गुटखा, बीड़ी या सिगरेट का सेवन न किया हो।
• रक्तचाप मापने के पहले रोगी को शांत वातावरण में 5-10 मिनट विश्राम करने को कहें।
• यह सुनिश्चित कर लें कि रक्तचाप मापक यंत्र ठीक से काम कर रहा हो। इसका नियमित रखरखाव आवश्यक है।
• रक्तचाप को दो से अधिक बार नापें।
• दोनों बाहों का रक्त चाप नापें।
• हमेशा ध्यान रखे की यंत्र का कफ रोगी के बांह के नाप का हो।


अपने रोगियो को यह अच्छी तरह समझा दे की वे अपना रक्त चाप नियमित नपवाते रहें यदि रक्तचाप ज्यादा या कम हो तो चिकित्सक से सम्पर्क करें। रक्तचाप मापने के लिये पारे वाला या डायल वाला यंत्र ही सबसे अच्छा माना गया है। इलेक्ट्रानिक रक्तचाप यंत्र पर भरोसा न करें, यह कई बार गलत निर्णय देता है।


नोन-सलेक्टिव बीटा ब्लॉकर जैसे प्रोप्रेनालोल और सलेक्टिव बीटा ब्लॉकर जैसे ऐटीनोलोल और मेटोप्रोलोल दोनों ही ट्राइग्लीसराइड्स की मात्रा 30-40 % और HDL कॉलेस्ट्रोल की मात्रा 10-15 % बढ़ाते हैं। सिम्पेथेटिक प्रभाव वाले बीटा-ब्लॉकर जैसे प्रेक्टोलोल और पिंडोलोल वसा की मात्रा को प्रभावित नहीं करते है। वेरापेमिल और नीफेडिपिन कालेस्ट्रॉल को कम करती हैं। ACE इनहीबिटर्स और ARB लिपिड प्रोफाइल को प्रभावित नहीं करते हैं।


एक पहलू जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, वह है पुरुषों में स्तंभन दोष। यह डायबिटीज के पुरूष रोगियों की महत्वपूर्ण समस्या है। ऐसा देखा गया है कि डायबिटीय होने के कुछ वर्षों बाद लगभग 50-60 % पुरूष रोगियों को स्थम्भन दोष की शिकायत हो जाती है। इसके कारण इससे रोगियों को काफी मानसिक आघात पहुँचता है। इसके बारे में वह अपने चिकित्सक से भी नहीं कह पाता है। ऐसे कितने चिकित्सक है जो अपने रोगियों से इस विषय के बारे में भी खुलकर प्रश्न करते हैं। जबकि आज हमारे पिटारे में नपुंसकता के लिये ढ़ेर सारे उपचार हैं। दुर्भाग्यवश ज्यादातर रक्तचाप की दवाईयों का दुष्प्रभाव नपुंसकता है। हमें चाहिये कि ऐसी दवाईयों का उपयोग बन्द करें। और किन्हीं विषम परिस्थितियों में उन्हें देना भी पड़े तो रोगी को उनके दुष्प्रभाव पहले से बताये जायें।

आज जब हमारे पास बेहतर दवाईयां उपलब्ध है जो रक्तचाप का स्निग्ध नियंत्रण करने के साथ-साथ रोगी में कोई सेक्स विकार भी नहीं करती हैं। तो हम क्यों अज्ञानवश पुरानी दवाईयां ही रोगियों को खिलाये जा रहे हैं। डाययुरेटिक्स, बीटा ब्लॉकर्स और हाईड्रेलेजील भी स्थम्भन दोष के लिये जिम्मेदार है। ACEi’s और ARB’s पूर्णतः सुरक्षित है।



हमने उपर देखा था कि ओटोनोमिक न्युरोपैथी के कारण कई रोगियों में पोस्चुरल हाइपोटेंशन की शिकायत होती है। ऐसे रोगियों को वे दवाईयां नहीं देनी चाहिये जिनका पार्श्व प्रभाव पोस्चुरल हाइपोटेंशन है जैसे- प्रेजोनिन, हाइड्रेनेजिन, मिनोक्सीडिल और कुछ डाइयुरेटिक्स बीटा ब्लॉकर्स में पिन्डोलोल काफी सुरक्षित मानी गयी है। CCB’s, ACEi’s और ARB’s भी इस मामले में अपेक्षाकृत सुरक्षित है।


रक्तचाप की देखभाल


सेकन्ड्री हाइपरटेंशन


हमारा अगला कदम उच्च रक्तचाप के उन कारणों का पता लगाना है, जिनका संपूर्ण उपचार शल्य क्रिया या अन्य तरीकों द्वारा संभव है, जैसे गर्भ निरोधक गोलियां, स्टिरोयड्स, एक्रोमेगाली, कशिंग्स सिंड्रोम, थायरोटोक्सिकोसिस, कोन्स सिंड्रोम, फियोक्रोमोसाइटोमा और रिनो-वेस्कुलर हाइपरटोंशन। हालांकि सामान्यतः विषमताओं के निदान हेतु विशेष जांचे नहीं करवाई जाती हैं, लेकिन एक अनुभवी चिकित्सक उपरोक्त कारणों को आरंभिक अवस्था में भी ताड़ ही लेता है।


नियंत्रण

रक्तचाप नियंत्रण की कई दवाइयों को हम विषम पार्श्व प्रभावों के कारण डायबिटीज में प्रयोग नहीं कर पाते हैं। हमें औषधियों के साथ साथ रक्तचाप के अन्य प्राकृतिक उपचार भी अपनाने चाहिये जैसे योग, ध्यान, प्राणायाम या जड़ी बूटियां । स्थूलता से रक्तचाप बढ़ता है और वजन कम करने से रक्तचाप कम होता है। इसलिए मोटे डायबीटिक को हमेशा वजन कम करने की सलाह दी जाती है।


नमक (सोडियम क्लोराइड) का सेवन कम करने से रक्तचाप पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। जब रक्तचाप बढ़ता है तो आरंभिक अवस्था में रक्त का आयतन भी बढ़ता है, जिसका कारण बढ़ी हुई ग्लुकोज का रसाकर्षण (Osmosis) प्रभाव है। इसमें सोडियम की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। ऐसा देखा गया है कि यदि डायबिटीज के रोगी को ब्लड प्रेशर भी है तो उसका सोडियम अपेक्षाकृत 10% ज्यादा होता है।


रक्तचाप बढ़ने में सोडियम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और सोडियम की मात्रा कम करना रक्तचाप के उपचार का कैंद्र बिंदु है। सोडियम की मात्रा कम करने के दो उपाय हैं, सोडियम का सेवन कम करना या डाइयुरेटिक्स लेना। डाइयुरेटिक्स के कई विषम पार्श्व प्रभाव हैं अतः डायबिटीज के रोगी को सोडियम (नमक) का सेवन कम से कम करना ही श्रेष्टतम होगा।


उच्च रक्तचाप में दी जाने वाली मुख्य दवाइयां


एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम इन्हिबिटर्स (ACEi’s)

सन् 1981 से प्रचलित ACEi’s विषेशतौर पर डायबिटीज के रोगियों में उच्च रक्तचाप के उपचार की लोकप्रिय दवा है। डायबिटीज के रोगी में नेफ्रोपैथी की आरंभिक अवस्था (माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया) से ही इसे शुरू कर देना चाहिये चाहे रक्तचाप सामान्य रहता हो। ऐसे पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि यह ग्लोमेर्युलस की केशिकाओं में रक्त का दबाव कम करती हैं जिसके फलस्वरूप नेफ्रोपैथी के कारण हुई आरंभिक क्षति को या तो उलट कर सही कर देती है या कम से कम क्षति की प्रगति को अवरुद्ध तो करती ही है। यह डायबिटीज में उच्च रक्तचाप की पसंदीदा औषधि है। यह उन रोगियों के लिए भी हितकारी है जिन्हें हृदयाघात, कंजेस्टिव हार्ट फेल्यर या डायबीटिक किडनी रोग हो चुका हो। हाल ही हुए परीक्षणों से यह निश्कर्ष निकला है कि यह स्ट्रोक, कोरोनरी धमनी रोग और अन्य हृदय रोगों के जोखिम को 20% से 30% कम करते हैं। ये इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ाते हैं। इनका लिपिड प्रोफाइल पर कोई कुप्रभाव नहीं है। ये रेटीनोपैथी की प्रगति में अवरोध पैदा करते हैं।

कार्य प्रणाली

एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम (ACE) एक प्रोटीन है जो निष्किय तत्व एंजियोटेंसिन-I को एंजियोटेंसिन-II में बदल देता है। एंजियोटेंसिन-II एक प्रबल तत्व है जो रक्त वाहिकाओं का संकुचन करता है। एंजियोटेंसिन कनवर्टिंग एंजाइम इन्हिबिटर्स (ACEi’s) इस एंजाइम को निष्क्रिय कर रक्त में एंजियोटेंसिन-II का मात्रा को कम करते हैं। एंजियोटेंसिन-II प्रबल रक्त वाहिका संकुचक है और एल्डोस्टेरोन का स्राव बढ़ाता है। एल्डोस्टेरोन सोडियम और जल को रोकता है। इस तरह ACEi’s एंजियोटेंसिन-II के स्राव को कम कर रक्त वाहिकाओं का विस्तारण करते हैं और एल्डोस्टेरोन के प्रभाव को निष्क्रिय करते हैं, फलस्वरूप रक्तचाप कम होता है।

वर्जना

अतिसंवेदनशीलता, गर्भावस्था, सोडियम ज्यादा होना, दोनों रीनल धमनियों का संकुचन। यदि यह दवा शुरू करते ही क्रियेटिनीन बढ़ने लगे तो मान कर चलें कि हो न हो यह दोनों रीनल धमनी के संकुचन के कारण ही बढ़ा हो। पहले इस संभावना का निदान कीजिये।

पार्श्व प्रभाव

ब्रेडीकाइनिन जमा होने के कारण बिना बलगम वाली सूखी खांसी, एंजियोऐडीमा, हाइपोग्लाइसीमिया, रक्तचाप कम हो जाना, एंजाइना (छाती में दर्द), , चक्कर आना, सर दर्द, कमजोरी, थकावट, मिचली, वमन, दस्त, कब्जी, श्वेत रक्त कण कम हो जाना, त्वचा में चकत्ते, चेहरा तमतमाना, सोडियम ज्यादा होना और मूत्र में प्रोटीन का स्राव।


एंजियोटेंसिन रिसेप्टर ब्लॉकर (ARBs)

एंजियोटेंसिन रिसेप्टर ब्लोकर उच्च रक्तचाप की दवाइयों की सबसे नई क्षेणी है जो ACEi’s के समान प्रभावशाली है। नये परीक्षणों से सिद्ध हुआ है कि अन्य दवाइयों की अपेक्षा ARBs वृक्कों की सुरक्षा बहतर ढंग से करती हैं। उच्च रक्तचाप की अनुपस्थिति में भी ये मूत्र में एल्ब्युमिन के स्राव (माइक्रोएल्ब्युमिनुरिया) कम करते हैं।

कार्य प्रणाली

ये एंजियोटेंसिन-II की उसके अभिग्राहक (रिसेप्टर) से समन्वय को बाधित करते हैं और इस तरह एंजियोटेंसिन-II का रक्त वाहिका संकुचन नहीं कर पाता है तथा एल्डोस्टेरोन का स्राव भी कम होता है। एल्डोस्टेरोन सोडियम और जल को रोकता है और रक्त का आयतन बढ़ाता है। ARBs इस तरह एल्डोस्टेरोन के प्रभाव को निष्क्रिय करते हैं, और रक्तचाप कम होता है।

वर्जना

अतिसंवेदनशीलता, गर्भावस्था, सोडियम ज्यादा होना, दोनों रीनल धमनियों का संकुचन। यदि यह दवा शुरू करते ही क्रियेटिनीन बढ़ने लगे तो सबसे पहले रीनल धमनियों के संकुचन की संभावना पर गौर कीजिये।

पार्श्व प्रभाव

ऑर्थोस्टेटिक हाइपरटेंशन, एंजियोऐडीमा, चक्कर आना, सर दर्द, थकावट, अपच, दस्त, मांस पेशियों में एंठन, त्वचा में चकत्ते, चेहरा लाल होना, सोडियम ज्यादा होना और मूत्र में प्रोटीन का स्राव।

केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs)

केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs) को उच्च रक्तचाप और एंजाइना के उपचार में व्यापक रूप से प्रयोग में लिया जाता है। कुछ वर्षों पहले ऐसी जानकारियां मिली थी कि इसके सेवन करने वाले रोगियों को हार्ट अटेक हो रहे हैं। यह बड़ी अचरज भरी घटना थी। हालांकि ये हार्ट अटेक निफेडिपिन के कारण हो रहे थे, जो वास्तव में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु कभी भी स्वीकृत नहीं की गई थी। सामान्यतः दीर्घ प्रभावी CCBs को काफी सुरक्षित माना जाता है क्योंकि ये धीरे धीरे और सहजता से रक्तचाप कम करते हैं। ये आजकल पुनः लोकप्रिय हो रही हैं।


CCBs दो तरह के होते हैं। डाइहाइड्रोपाइरिडीन्स CCBs (जैसे एम्लोडिपिन, डिलटायजेम) और नोनडाइहाइड्रोपाइरिडीन्स CCBs (जैसे वेरापेमिल)।


CCBs और ACEi’s को साथ दिया जाय तो मूत्र में एल्ब्युमिन का स्राव कम होता है।


कार्य प्रणाली
रक्त वाहिका की पैशी कोशिका (Muscle Cell) की झिल्लियों में केल्शियम के प्रवेश हेतु विशेष मार्ग होते हैं जिन्हें केल्शियम चेनल्स कहते हैं। केल्शियम इन चेनल्स से गुजरती हुई कोशिका में प्रवेश करती हैं और पैशी कोशिका का संकुचित करती हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है केल्शियम चेनल ब्लॉकर (CCBs) झिल्लियों की केल्शियम चेनल्स को बंद कर देती हैं और पैशी कोशिका के संकुचन को कमजोर करती हैं। इससे रक्त वाहिकाओं का विस्तारण (Dilatation) होता है और रक्तचाप कम होता है। हृदय की पैशियां भी केल्शियम पर निर्भर हैं लेकिन इनका विन्यास कुछ अलग तरह का होता है, जिसके फलस्वरूप कुछ CCBs सिर्फ हृदय की पैशियों पर ही काम करती हैं और अन्यत्र नहीं। CCBs का कोरोनरी धमनियों को विस्तारित करना एंजाइना और उच्त रक्तचाप के लिए हितकारी है।

वर्जना

अतिसंवेदनशीलता, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, सिक साइनस सिन्ड्रोम, सिंपेथेटिक हाइपोटेंशन, कंजेस्टिव कार्डियक फैल्यर, कोरोनरी धमनी रोग।

पार्श्व प्रभाव

एवी हार्ट ब्लॉक, परिधीय एडीमा, सर दर्द, चक्कर, मसूढ़े बढ़ जाना, कब्जी आदि।

बीटा ब्लॉकर्स

हृदय की विषमताओं पर अनुकूल प्रभाव के कारण पहले बीटा ब्लॉकर्स डायबिटीज में उच्च रक्तचाप के उपचार में खूब लिखे जाते थे। लेकिन हाल ही हुई शोध से कुछ प्रतिकूल बातें सामने आई हैं जैसे हाइपोग्लाइसीमिया के लक्षणों का महसूस न होने के कारण रोगी का बेफिक्र बने रहना, पेरीफ्रल वेस्कुलर रोग में वृद्धि, रक्त-शर्करा और LDL-कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना, जिससे कारण इनका प्रयोग काफी कम हुआ है।


नोन सेलेक्टिव बीटा ब्लॉकर्स जैसे प्रोप्रेनोलोल उपवास और आहार दोनों समय इंसुलिन का स्राव कम करते हैं और रक्त-शर्करा को 25%-30% बढ़ाते हैं। हालांकि सेलेक्टिव बीटा ब्लॉकर्स जैसे मेटोप्रोलोल, एटीनोलोल आदि सामान्यतः इंसुलिन के स्राव को प्रभावित नहीं करते हैं।


यह सत्य है कि रक्त-शर्करा की 30% बढ़त कोई विशेष नहीं है और इसे दवाइयों की मात्रा बढ़ा कर कम किया जा सकता है।


ग्लुकागोन का स्राव भी बीटा एड्रिनर्जिक के नियंत्रण में रहता है। प्रोप्रेनोलोल का सेवन ग्लुकागोन का स्राव कम करता है। ग्लुकागोन हाइपोग्लाइसीमिया से सुरक्षा कि मुख्य कड़ी है। बीटा ब्लोकर्स आवश्यकता पड़ने पर यकृत में गिलाइकोजन से ग्लुकोज के निर्माण को भी बाधित करते हैं। बीटा ब्लोकर्स कोशिकाओं में ग्लुकोज को ऊर्जा के निर्माण हेतु भेजते हैं। हालांकि ये सभी क्रियाएं डायबिटीज के रोगी के लिए हितकारी हैं। लेकिन बीटा ब्लोकर्स लेने वाले रोगी में हाइपोग्लाइसीमिया होने की संभावना ज्यादा रहती है, खास तौर पर इन्सुलिन लेने वाले रोगियो में। बीटा ब्लोकर्स लेने वाले रोगी को हाइपोग्लाइसीमिया की स्थिति से बाहर निकलने में भी समय लगता है। बीटा ब्लोकर्स नोरएपिनेफ्रीन का स्राव भी बाधित करते हैं, जो हाइपोग्लाइसीमिया से बाहर निकलने में मदद करता है।


नोनसेलेक्टिव और सलेक्टिव बीटा ब्लोकर्स ट्राइग्लिसराइड्स को 30% से 40% बढ़ाते है और HDL कॉलेस्ट्रोल को 10% से 15% कम करते है। सिम्पेथेटिक प्रभाव वाले बीटा ब्लोकर्स जैसे प्रेक्टोलोल और पिन्डोलोल लिपिड प्रोफाइल को नहीं छेड़ते है।


हालांकि बीटा ब्लोकर्स रक्त-शर्करा भी थोड़ी बढ़ाते हैं, कॉलेस्ट्रोल को भी बढ़ाते है और हाइपोग्लाइसीमिया का जोखिम भी ज्यादा रहता है, लेकिन ये हृदय रोगों की जोखिम को काफी कम करते हैं। इसलिए बीटा ब्लोकर्स को मधुमेह में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु दूसरे या तीसरे विकल्प के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।


कार्य प्रणाली

जैसा कि नाम से स्पष्ट बीटा ब्लॉकर्स बीटा रिसेप्टर्स को अवरुद्ध करते हैं। स्वायतः नाड़ी तंत्र या सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम हृदय और रक्त वाहिकाओं की विभिन्न क्रियाओं का नियंत्रण करता है। यह नर्व एडिंग्स से नोरएपिनेफ्रीन नामक रसायन का स्राव करता है जो हृदय और रक्त वाहिकाओं की कोशिका की सतह पर स्थित रिसेप्टर्स से क्रिया कर उनका संकुचन और विस्तारण करता है। बीटा ब्लॉकर्स इन रिसेप्टर्स पर चिपक जाते हैं और नोरएपिनेफ्रीन रिसेप्टर्स से क्रिया नहीं कर पाते हैं।


हृदय की पैशियों पर स्थित बीटा-1 रिसेप्टर्स के अवरोध के कारण हृदय गति कम होती है, पैशियों का संकुचन और एवी-कंडक्शन धीमा पड़ जाता है।


वर्जना

अतिसंवेदनशीलता, कार्डियोजनिक शोक या कार्डयक फैल्यर, तीव्र साइनस ब्रेडीकार्डिया, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, ब्रोंकियल अस्थमा या COPD सीओपीडी।

पार्श्व प्रभाव

रक्तचाप कम होना, हृदय गति कम होना, अवसाद, सर दर्द, चक्कर, अनिद्रा, ट्राइग्लिसराइड्स तथा LDL कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना और HDL कॉलेस्ट्रोल का कम होना, ब्रोंकोस्पाज्म, कामेच्छा कम होना और पुषहीनता। एवी हार्ट ब्लॉक, परिधीय एडीमा, सर दर्द, चक्करआना, मसूढ़े बढ़ जाना, कब्ज़ी आदि। सुस्ती आना भी बड़ा कष्टदायक कुप्रभाव है।


अल्फा ब्लॉकर्स

अल्फा ब्लॉकर्स को डायबिटीज में उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु पहले विकल्प के रुप में प्रयोग नहीं किया जाता है। इसका प्रयोग अन्य दवाईयों के साथ दूसरे या तीसरे विकल्प के रूप में तभी किया जाता है जब रक्तचाप को नियंत्रित करना काफी मुश्किल हो रहा हो।



कार्य प्रणाली

अल्फा ब्लॉकर्स सिम्पेथेटिक नाड़ी तंत्र के प्रभाव से होने वाले रक्त वाहिकाओं के संकुचन को बाधित करते हैं। ये रक्त वाहिकाओं की पेशी कोशिकाओं पर स्थित अल्फा रिसेप्टर्स को निष्क्रिय करते हैं और नोरएपिनेफ्रीन नामक रसायन को कोशिका की पेशियों का संकुचन करने से रोकते है। फलस्वरूप वाहिका तंत्र का परिधीय प्रतिशोध कम होता है और रक्तचाप स्वतः कम हो जाता है।

वर्जना

अतिसंवेदनशीलता, कार्डियोजनिक शोक या कार्डियक फैल्यर, तीव्र साइनस ब्रेडीकार्डिया, दूसरे या तीसरे दर्जे का हार्ट ब्लॉक, ब्रोंकियल अस्थमा या COPD सीओपीडी।

पार्श्व प्रभाव

आम तौर पर इनकी पहली खुराक से रक्तचाप एक दम गिरता है हालांकि बाद की खुराकों से रक्तचाप में ऐसी नाटकीय गिरावट नहीं होती है। रक्तचाप में इस गिरावट के कारण खड़े होने पर रोगी चक्कर खाकर गिर सकता है। इसलिए आरम्भ में अल्फा ब्लॉकर्स को कम मात्रा से शुरू किया जाता है और खुराक रात में दी जाती है। अल्फा ब्लॉकर्स के अन्य कुप्रभाव हैं - दिल की धड़कन बढ़ना, ब्रेडीकार्डिया, एडीमा, सर दर्द, चक्कर आना, थकावट, मिचली, वमन, दस्त, कब्ज़ी, ट्राइग्लिसराइड्स तथा LDL कॉलेस्ट्रोल का कम होना और HDL कॉलेस्ट्रोल का बढ़ना, मूत्र बार-बार आना, पुरूष हीनता, अविरत शिश्नोत्थान (Priapism) ।


डाइयुरेटिक्स

थायजाइड

ग्लुकोज और लिपिड प्रोफाइल पर प्रतिकूल प्रभावों और हृदय रोगों के जोखिम के कारण कुछ वर्षों पहले तक डायबिटीज के रोगियों में रक्तचाप के हेतु डाइयुरेटिक्स को ज्यादा पसंद नहीं किया जाता था। लेकिन इन दिनों डाइयुरेटिक्स पुनः चर्चा में हैं और ACEi’s तथा ARB’s के बाद पसंदीदा विकल्प मानी जाती हैं।


इसके कई कारण हैं। भोजन में नमक की मात्रा सिमित करने और डाइयुरेटिक्स लेने से डायबिटीज के रोगी में रक्तचाप कम होता है। नमक कम लेने से रक्त का बढ़ा हुआ आयतन कम हो जाता है। आयतन कम होने से रेनिन और एंजियोटेंसिन-II का स्राव बढ़ता है जो मूत्र विसर्जन कम करता है और ACEi’s के कार्य को गति देता है। जिस तरह डाइयुरेटिक्स ACEi’s और ARB’s की मदद करते हैं उसी तरह ACEi’s और ARB’s डाइयुरेटिक्स के चयापचय जनित कुप्रभावों जैसे सोडियम कम होना (एंजियोटेंसिन-II के प्रभाव से स्रावित एल्डोस्टेरोन को कम करके), यूरिक एसिड का बढ़ना और रक्त-वसा की विकृतियों को रोक देते हैं या कम करते हैं। इस तरह रक्तचाप की दवाइयों की दो श्रेणियां आपस में एक दूसरे को सहयोग करती हैं। वैसे डाइयूरेटिक्स के कुप्रभाव तभी होते हैं जब इन्हें ज्यादा मात्रा में दिया जाता है।


कार्य प्रणाली

ये वृक्क की डिस्टल ट्युब्यूल में सोडियम और क्लोराइड का अवशोषण बाधित कर सोडियम और जल का विसर्जन बढ़ाते हैं। रक्त वाहिकाओं का सीधा विस्तारण कर रक्तचाप कम करते हैं।

वर्जना


अतिसंवेदनशीलता और मूत्र का स्राव बंद होना।


पार्श्व प्रभाव


रक्त में सोडियम, मेग्नीशियम, केल्शियम तथा पोटेशियम कम होना, रक्त-शर्करा बढ़ना, यूरिक एसिड बढ़ना, एरिद्मिया, रक्त-वसा विकृतियां, प्रकाश संवेदनशीलता आदि।


पोटेशियम स्पेरिंग डाइयूरेटिक


कार्य प्रणाली

एमिलोराइड और ट्रायमटेरीन डिस्टल ट्युब्यूल में सोडियम और क्लोराइड के आदान-प्रदान को प्रभावित करते हैं। स्पाइरोनोलेक्टोन एल्डोस्टिरोन विरोधी है। चूंकि एल्डोस्टिरोन सोडियम और जल को रक्त में रोक कर रखता है। स्पाइरोनोलेक्टोन एल्डोस्टिरोन के कार्य को बाधित करता है और रक्त का आयतन कम करता है अतः रक्तचाप कम होता है।


वर्जना


अतिसंवेदनशीलता, वृक्कवात या किडनी फैल्यर, मूत्र का स्राव बंद होना, यूरिया, क्रियेटिनीन व पोटेशियम का बढ़ना।

पार्श्व प्रभाव

रक्त में पोटेशियम बढ़ना, जी घबराना, उलटी, दस्त, भूख न लगना, नपुंसकता, पुरुषों में स्तन बड़ा हो जाना।


बच्चों और किशोरों में टाइप-2 डायबिटीज


आश्चर्य की बात है कि जो टाइप-2 डायबिटीज पहले चालीस वर्ष की उम्र में होती थी वह आजकल बच्चों और किशोरों में भी बड़ी सामान्य होती जा रही है। यह बहुत गम्भीर बात है कि जो उम्र बच्चों के खाने खेलने कूदने कि है उसमें उन्हें डेविल डायबिटीज जकड़ने लगी है। कई बार चिकित्सकों के लिये यह मालूम करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि बच्चे को टाइप-1 डायबिटीज है या टाइप-2 डायबिटीज। जिसके लिये उन्हें सी पेप्टाइड, इन्सुलिन की रक्त में मात्रा तथा ओटोएन्टीबॉडी टेस्ट करवाने पड़ते हैं जो काफी जटील, मंहगे और बड़े केन्द्रों पर होने वाले टेस्ट हैं।


आजकल बच्चों की जीवनशैली बहुत विकृत हो गई है जिसके लिए माता-पिता भी काफी हद तक जिम्मेदार है। आजकल बच्चों में खेल-कूद और व्यायाम की दर काफी घटती जा रही है। टेलीविजन देखने की दर काफी बढ़ चुकी है। बच्चे घंटो कम्प्युटर पर गेम खेलते रहते हैं या इन्टरनेट की दुनियां में खोये रहते हैं।

यदि बच्चे एक घंटा रोजाना खेलकूद में व्यतीत करें तो डायबिटीज से बचाव संभव है। दूसरा मुख्य कारण है बच्चों में ताजेफल, सब्जियों और पोषक खाद्य सामग्री के प्रति अरूचि और इनकी जगह सोफ्ट ड्रिंकस्, मैदा से बने खाद्य पदार्थ जैसे पिज्जा, बरगर, फास्ट फूड, मिठाइयों का अत्यधिक सेवन करना। इन खाद्य सामग्री को खाने से शरीर में अत्यधिक मुक्त कण या फ्री रेडिक्लस पैदा होते हैं जो बीटा सेल्स को धीरे-धीरे नष्ट करने लगते हैं और नतीजा होता है मोटापा और टाइप-2 डायबिटीज ।



यदि हमें बच्चों और किशोरों में होने वाले मोटापे और टाइप-2 डायबिटीज से इन्हें बचाना है तो बच्चों के माता-पिताओं, स्कूल के शिक्षकों और चिकित्सकों को मिलकर बच्चों की जीवनशैली में परिवर्तन लाने होंगे। पश्चिमी देशों का अनुसरण करना छोड़ हमारे बच्चों को हमारी प्राचीन संस्कृति, योग, प्राणायाम और व्यायाम से रूबरु करवाना होगा। इन्हें पिज्जा, बर्गर, फास्ट फूड और कोला की जगह ताजे फलों के रस, अंकुरित अन्न और सात्विक भोजन खिलाना होगा।


बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों के लिए विशेष निर्देश


• मेदा, रिफाइन्ड तेल और वनस्पति घी से बने डिब्बा बन्द खाद्य पदार्थों, बेकरी उत्पादों, फास्ट फूड और तले हुए भोजन से पूर्ण परहेज।



• सभी सॉफ्ट ड्रिक्स शरीर का बहुत नुकसान करते हैं। सॉफ्ट ड्रिक्स पीने की विदेशी लत को छोड़िये। इनकी जगह ताजे फलो का रस पिये।


• टॉफी, चॉकलेट और मिठाइयों का सेवन नियमित नहीं करें।


• व्यायाम नियमित रुप से कर करें। घूमना, खेलना, योगासन, प्राणायाम और ध्यान को जीवन का नियम बना लें।


भारत बना डायबिटीज की राजधानी
विश्व में आज डायबिटीज के सबसे ज्यादा रोगी भारत में हैं। भारत में डायबिटीज के रोगियों की संख्या विस्फोटक रूप से बढ़ रही है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। भारत डायबिटीज की राजधानी बन चुका है। अब हमें जाग जाना है और डायबिटीज के इस दानव को हर हाल में परास्त करना है।



सन् 1995 में हमारे देश में डायबिटीज के 19 मिलियन रोगी थे। सन् 2007 में डायबिटीज के जर्मनी में 7.4 मिलियन, रूस में 9.6 मिलियन, अमेरिका में 19.2 मिलियन, चीन में 38.9 मिलियन और भारत में सबसे ज्यादा 40.9 मिलियन रोगी हैं। अनुमान है कि सन् 2025 में यह संख्या बढ़ कर 69.9 हो जायेगी। यानी विश्व में डायबिटीज हर छठा रोगी भारतीय होगा। हमारे यहाँ 15 वर्ष से बड़े लोगों में शहरों की 11% और ग्रामीण क्षेत्र की 3% की आबादी डायबिटीज की गिरफ्त में है। चेन्नई के एमवी हॉस्टिपल के ताजा अध्ययन के अनुसार डायबिटीज का हर मरीज साल भर में इसके इलाज पर 25,931 रुपए खर्च करता है यानी सभी मरीजों का सालाना खर्च हुआ 1,31,729.48 करोड़ रुपए। गरीब-अमीर सभी का औसत देखें तो खर्च का 60 फीसदी हिस्सा लोग अपनी बचत से लगाते हैं और 39 फीसदी हिस्सा कर्ज लेकर पूरा करते हैं। केवल एक फीसदी खर्च स्वास्थ्य बीमा से आता है। चेन्नई में हुई शोध को नतीजों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र के 50% और शहरीय क्षेत्र के 30% डायबिटीज रोगी अज्ञानता के कारण अपनी बीमारी से पूर्णतया अनभिज्ञ रह जाते हैं। यदि यह सब जान कर भी सतर्क नहीं हुए तो हमारे युवाओं के भविष्य का क्या होगा?


डायबिटीज के कारण भारतीयों में हृदय रोगों का जोखिम यूरोप और अमरीका के लोगों से ज्यादा होता है। यहाँ तक कि ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों में भी डायबिटीज और हृदय रोगों का जोखिम स्थानीय लोगों से ज्यादा होता है जो यह सिद्ध करता है कि इसके लिए भोजन और जीवनशैली के अलावा जेनेटिक कारण भी जिम्मेदार हैं। एक सर्वे के अनुसार पश्चिमी देशों में उच्च रक्त-चाप, कॉलेस्ट्रोल और डायबिटीज के सशक्त उपचार की वजह से डायबिटीज जनित हृदय रोगों से होने वाली मृत्यु दर कम हो रही है। यह सच है कि हमारे यहाँ भी डायबिटीज के बारे में जागरुकता आने लगी है, लोग स्वस्थ जीवनशैली अपनाने लगे हैं, योग प्राणायाम करने लगे हैं और फास्ट फूड से बचने लगे हैं लेकिन फिर भी स्थितियां बिगड़ रही हैं। अमेरिका में डायबिटीज जनित हृदय रोग जोखिम दर 10%-30% है जबकि भारत में यह 50%-60% है। क्योंकि हमारे यहाँ लोग कॉलेस्ट्रोल को सिमित रखने या एस्पिरिन लेने जैसी छोटी छोटी बातों के लिए भी गंभीर नहीं हैं।


आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि हमारे यहाँ डायबिटीज की व्यापकता दर निरंतर बढ़ रही है और बाकी सब देशों को पीछे छोड़ कर भारत डायबिटीज की राजधानी बन गया है।



• मिलावट हमारे यहाँ हर चीज में मिलावट है। शायद हमारे यहाँ मिलावट करना एक जेनेटिक विकृति है। घी, तेल, दूध, मख्खन, पनीर, मावा, आटा, बेसन, मसाले, दालें, सब्जियां, फल, केशर, शहद, हींग आदि आदि हर चीज में मिलावट है। हमारे अधिकारी और नेता दोनों ही भ्रष्ट हैं। पुलिस सबसे बड़ी भक्षक है। मेरे खयाल से यह सबसे बड़ा कारण है।

• प्राकृतिक और सात्विक भोजन को छोड़ सॉफ्ट ड्रिंक, फास्ट फूड, जंक फूड, बेकरी उत्पादन, तले हुए स्थानीय खाद्य पदार्थों का फैशन, पाश्चात्य संस्कृति के अनुसरण और आधुनिकता के नाम पर रोजमर्रा सेवन करना।

• अच्छे प्राकृतिक इलेक्ट्रोन युक्त तेलों जैसे जैतून, तिल या सरसों की जगह पोषणहीन, मृत, प्लास्टिक-तुल्य रिफाइंड तेलों का प्रयोग करना।

• भोजन में आरोग्यवर्धक और स्वास्थ्यवर्धक फैट सम्राट ओमेगा-3 फैट की भारी कमी तथा रोगवर्धक कष्टवर्धक राक्षस फैट ओमेगा-6 का बहुत ज्यादा होना।

• भोजन में फलों व कच्ची सब्जियों का अभाव।

• व्यायाम तथा शारीरिक मेहनत का अभाव।

• फाइबर रहित भोजन को लेना।

• मानसिक तनाव का ज्यादा होना।

• मिठाईयों तथा चीनी का ज्यादा सेवन।


वसा अम्ल


मानव शरीर में अधिकतर वसा अम्लों में 14 से 24 कार्बन की लड़ या श्रंखला होती है, जिसके एक सिरा कार्बोक्सिल COOH से बंधा रहता है अतः इसे कार्बोक्सिल सिरा कहते हैं और दूसरा सिरा मिथाइल CH3 से बंधा रहता है जिसे मिथाइल या ओमेगा सिरा कहते हैं। वसा अम्ल की लड़ में कार्बोक्सिलेट के बाद वाले कार्बन को अल्फा αउससे अगले को बीटा β और इस तरह गिनते हुए आखिरी कार्बन को ओमेगा ω (ग्रीक वर्णमाला का आखिरी अक्षर) कहते हैं। वसा अम्ल की लड़ में सामान्यतः कार्बन के परमाणुओं की संख्या सम होती है क्योंकि इनकी उत्पत्ति दो कार्बन वाले एंजाइम एसीटाइल कोए से होती है। वसा अम्ल का निर्माण ट्राइग्लीसराइड के निर्जलीकरण और ग्लीसरोल अलग होने से होता है। वसा अम्ल तीन प्रकार के होते हैं।




1- संत्रप्त वसाअम्ल (Saturated Fatty Acid)


2- एकल असंत्रप्त वसाअम्ल (Mono Unsaturated Fatty Acid)


3- बहु असंत्रप्त वसाअम्ल (Poly Unsaturated Fatty Acids)




सामान्यतः कार्बन के परमाणु से 4 अन्य परमाणु जुड़ सकते हैं जैसे मीथेन गैस CH4 में कार्बन से 4 हाइड्रोजन के परमाणु जुड़े हुए हैं। संत्रप्त वसाअम्ल (Saturated Fatty Acid) में सारे कार्बन दोनों तरफ एक एक हाइड्रोजन परमाणु से एकल बंधन द्वारा बंधे रहते हैं। ये सामान्य तापमान पर ठोस रहते हैं।


एकल असंत्रप्त वसाअम्ल (Mono Unsaturated Fatty Acid) में सिर्फ दो कार्बन ऐसे होते हैं जो दो के स्थान पर एक ही हाइड्रोजन से बंधे होते हैं और संतुलन बनाये रखने के लिए ये आपस में द्विबंध द्वारा जुड़ते हैं, यानी इनमें सिर्फ एक द्विबंध होता है। ये सामान्य तापमान पर तरल रहते हैं।


यदि कार्बन की लड़ में एक से ज्यादा द्विबंध हो तो उसे बहु असंत्रप्त वसाअम्ल (Poly Unsaturated Fatty Acids) कहते हैं। लगभग सारे तेल असंतृप्त या अन-सेचुरेटेड फैट होते हैं। ये भी सामान्य तापमान पर तरल रहते हैं।


आवश्यक वसा अम्ल


हमारे लिए अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल (Omega-3 Fatty Acid) और लिनोनिक अम्ल (Omega-6 Fatty Acid) आवश्यक वसा अम्ल है, जिसका साफ साफ मतलब यह है कि यह शरीर में नहीं बन सकते हैं क्योंकि स्तनधारी जीव मिथाइल या ओमेगा सिरे से नवें कार्बन के पहले द्विबंध वाले वसाअम्ल बनाने में सक्षम नहीं होते हैं। इसलिए इन्हें भोजन द्वारा लेना अत्यंत आवश्यक है। जब 1923 में इनकी खोज हुई तो इन्हें विटामिन एफ कहा जाता था। लेकिन 1930 में बर्र और मिलर ने इन्हें फैट की श्रेणी में रखना ठीक समझा।




अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल या ALA को संक्षेप में 18:3 n-3 लिखते हैं, जो दर्शाता है कि इस वसाअम्ल में 18 कार्बन की लड़ है और तीन द्विबंध हैं और पहला द्विबंध मिथाइल सिरे से तीसरे कार्बन के बाद है। इसी तरह लिनोलिक अम्ल LA को 18:2 n-6 लिखेंगे क्योंकि इस वसाअम्ल में 18 कार्बन की लड़ है और दो द्विबंध हैं और पहला द्विबंध मिथाइल सिरे से छठे कार्बन के बाद है।




ओमेगा-3 या ओम-3 वसाअम्ल


ओमेगा-3 या ओम-3 वसाअम्ल उन बहु असंत्रप्त वसा अम्लों को कहते हैं जिनमें पहला द्विबंध मिथाइल सिरे से तीसरे कार्बन के बाद होता है। मुख्य ओम-3 वसाअम्ल निम्न हैं।


अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल (Omega-3 Fatty Acid) यह आवश्यक है। इनके सबसे महान स्रोत अलसी, अखरोट, सूर्यमुखी, चिया, सोयाबीन, कद्दू के बीज, गांजे के बीज और और हरी सब्जियां हैं।




1- अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल Alpha Linolenic Acid


2- स्टियरिडोनिक एसिड


3- आइकोसाटेट्रानोइक एसिड (ETA)


4- Eicosapentaenoic Acid (EPA)


5- Docosahexaenoic Acid (DHA)




ओमेगा-3 वसा अम्ल Docosahexaenoic Acid (DHA) and Eicosapentaenoic Acid (EPA) के स्रोत ठंडे पानी की मछलियां जैसे सरडीन, सालमोन, कोड, हेलीबुट, हेरिंग, ट्रॉट, टुना आदि हैं। यह अवश्य याद रखें कि DHA और EPA आवश्यक वसा अम्ल नहीं हैं, यानी ये शरीर में विटामिन बी-6 और मेगनीशियम की मदद से ALA से EPA में और EPA से DHA में परिवर्तित हो जाते हैं। DHA Prostaglandin IV Series बनाता है जो शक्तिशाली थक्का-रोधी है।


अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल विटामिन बी-6, मेगनीशियम और जिंक की उपस्थिति में 6-डिसेचुरेज एंजाइम की मदद से असंत्रप्त होकर स्टियरिडोनिक एसिड बनाता है। इलोन्गेज एंजाइम की मदद से स्टियरिडोनिक एसिड लंबा होकर आइकोसाटेट्रानोइक एसिड बनता है जो विटामिन सी, नायसिन और जिंक की उपस्थिति में 5-डी-सेचुरेज एंजाइम की मदद से आइकोसापेन्टानोइक एसिड (EPA) बनाता है। आइकोसापेन्टानोइक एसिड (EPA) असंत्रप्त और लंबा होकर डोकोसेहेग्जानोइक एसिड हनता है। आइकोसापेन्टानोइक एसिड (EPA) ही तृतीय श्रंखला के प्रोस्टाग्लेन्डिन (PG-3), थ्रोम्बोक्सेन (TXA-3) और ल्युकोट्राइन (TLB-5) बनाता है, जो प्रदाह-रोधी, रक्त-वाहिका विस्तारक हैं और बिम्बाणुओं का चिपचिपापन कम करते हैं।



ओमेगा-6 या ओम-6 वसाअम्ल


ओमेगा-6 या ओम-6 वसाअम्ल उन बहु असंत्रप्त वसा अम्लों को कहते हैं जिनमें पहला द्विबंध मिथाइल सिरे से छठे कार्बन के बाद होता है। लिनोलिक एसिड LA ओम-6 या Omega-6 श्रेणी का वसाअम्ल है जो सभी खाद्य तेलों में बहुतायत में पाया जाता है। इसके मुख्य स्रोत करड़ी (सफोला) का तेल, बिनोले का तेल, सूर्यमुखी का तेल, मूंगफली का तेल, मकई का तेल, अलसी का तेल आदि है। ये गामा लिनोलेलिक एसिड बनाते हैं। इस क्रिया में मेगनीशियम, इन्सुलिन, विटामिन सी, विटामिन बी3, विटामिन बी6, फोलिक एसिड और व्यायाम मदद करते हैं। हालांकि हाइड्रोजिनेटेड फैट, ट्रांस फैट, बढ़ा हुआ कॉलेस्ट्रोल, संतृप्त वसा, मार्जरिन, वायरस संक्रमण, कार्सिनोजन, रेडियेशन, ग्लुकागोन और जीर्णता इस परिवर्तन को बाधित करते हैं। इन सबमें हाइड्रोजिनेटेड फैट सबसे खतरनाक है। विख्यात फैट विशेषज्ञ डॉ. प्रोश के अनुसार हाइड्रोजिनेटेड फैट मानवता का सबसे बड़ा कातिल है। आजकल हर व्यावसायिक चीज़ हाइड्रोजिनेटेड फैट या तेल से तैयार की जा रही है। डॉ. प्रोश इसकी कड़ी निंदा करते हैं और मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानते हैं।

Gamma - Linolenic Acid (GLA) के स्रोत हैं मानव दूध, इवनिंग प्राइमरोज, ब्लेक करेंट और बोराज के बीज। Gamma-Linolenic Acid (GLA) Dihomo Gamma Linolenic Acid (DGLA) बनाता है। Gamma -DGLA Prostaglandin I Series बनाते हैं। ये प्रदाहरोधी (anti-inflammatory) हैं, भूख कम करते हैं, कैंसर-रोधी हैं, रक्षाप्रणाली को उत्कृष्ट बनाते हैं, बिंबाणुओं (platelets) का चिपचिपापन कम करते हैं, कॉलेस्ट्रोल कम करते हैं, रक्त-वाहिकाओं और श्वास नली का विस्तारण करते हैं, साइक्लिक AMP को बढ़ाते हैं, केल्शियम की गतिविधि को नियंत्रित करते हैं, थाइमस को


उत्तेजित करते हैं, हृदय को ऊर्जा देते हैं और नाड़ीसंदेश वाहकों का स्राव करते हैं।


कुछ विटामिन और घटक Prostaglandin I के निर्माण को उत्तेजित करते हैं जैसे विटामिन सी, ई, बी3, बी6, जिंक, केलशियम, बायोटिन और मेलाटोनिन। जबकि कुछ घटक जैसे एस्पिरिन, स्टीरोइड, लीथियम, हाइड्रोजिनेटेड फैट, फूड एडिटिव, NSAIDs, ALA, EPA & DHA (by feedback mechanisms) और कैफीन Prostaglandin I के निर्माण को बाधित करते हैं ।


ट्रांसफैट, विटामिन बी6, जिंक, हाइड्रोजिनेटेड फैट और ओमेगा-3 फैट की कमी Dihomo Gamma Linolenic Acid (DGLA) को Arachidonic Acid (AA) में परिवर्तित करने के लिए उकसाते हैं। जैतून का तेल, Eicosapentaenoic Acid (EPA), A-Linolenic Acid (ALA), and Vitamin A इस प्रक्रिया में अवरोध पैदा करते हैं। Dihomo Gamma Linolenic Acid (DGLA) से ऊर्जा भी पैदा होती है। Arachidonic Acid (AA) के प्रमुख स्रोत लाल मांस, दूध उत्पाद और शेलफिश हैं। Arachidonic Acid (AA)series II के Prostaglandin प्रोस्टासाइक्लिन (लाभदायक हैं), Thromboxane A2 (नुकसानदायक), and Leukotrienes(नुकसानदायक) बनाते हैं। लाभदायक प्रोस्टासाइक्लिन रक्त-वाहिकाओं का विस्तारण करते हैं, बिंबाणुओं (platelet) का चिपचिपापन कम करते हैं कैंसर-रोधी हैं और आमाशय की अम्लता कम करते हैं। Thromboxane A2 रक्त-वाहिकाओं का संकुचन करते हैं, बिंबाणुओं (platelet) का चिपचिपापन बढ़ाते हैं, साइक्लिक AMP को बढ़ाते हैं और कैंसर को बढ़ाते हैं। Leukotrienes बढ़ाते हैं, रक्त-वाहिकाओं का संकुचन करते हैं श्वास नली का संकुचन करते हैं और श्वास नली में श्लेष्मा का स्राव बढ़ाते हैं। हैं। Arachidonic Acid मस्तिष्क और आंखों के विकास के लिए भी आवश्यक है।




डॉ. यॉहाना बुडविज की महान खोज




अमरीका में प्रकाशित “द हैन्ड बुक ऑफ नेचुरल हैल्थ” में डॉ. यॉहाना बुडविज ने लिखा है कि कृत्रिम हाइड्रोजिनेटेज फैट स्वास्थ्य के लिए एक विष के सिवा कुछ नहीं है तथा स्वस्थ और निरोग शरीर के लिए आवश्यक वसा अम्ल बहुत जरूरी है। साठ वर्ष पहले डॉ. यॉहाना ने वसा पर वॉन लाइबिग (1842), फ्लुजर (1875), होप सेलर (1876) और लेबेडो (1888) द्वारा किये गये शोध कार्य को जारी रखा। 1920 में मेयरहोफ (जिन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला) ने बतलाया था कि लिनोलेनिक अम्ल और सल्फर युक्त प्रोटीन शरीर के लिए बहुत लाभदायक है। 1931 में वारबर्ग ने सिद्ध किया था कि आवश्यक वसा अम्ल (EFA) शरीर में फैटी डिजनरेशन को ठीक करते हैं। 1937 में सैंट गायोर्जी ने लिनोलेनिक एसिड और सल्फर युक्त प्रोटीन शरीर में ऑक्सीकरण की क्रिया को बढ़ाते हैं और जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। लेकिन इन सभी शोध कार्यों से कोई स्पष्ट नतीजे नहीं निकल पा रहे थे और सारे शोध कार्य प्रयोगशालाओं की फाइलों में दब कर रह गये थे।




तभी डॉ. बुडविज में प्रकाश का दीप जलाया। ज्ञान की रोशनी से पूरे विश्व को जगमगा दिया। उन्होंने पिछले कई वर्षों में विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा जानवरों किये गये प्रयोगों को न दोहरा कर सीधे हजारों स्वस्थ, रुग्ण और कैंसर तथा अन्य रोगों की आखिरी अवस्था से लड़ते हुए लोगों के रक्त के नमूने लिये। इन प्रयोगों से कई क्रांतिकारी और आश्चर्यजनक नतीजे सामने आये। बुडविज ने पाया कि सभी अस्वस्थ और बीमार लोगों में लिनोलेनिक एसिड की मात्रा बहुत ही कम थी। उन्होंने यह भी देखा कि सभी अस्वस्थ और बीमार लोगों में फोस्फेटाइड भी बहुत कम मात्रा में था, जो कोशिकाओं के विभाजन के लिए बहुत आवश्यक तत्व है। चूंकि कैंसर में भी असामान्य कोशिकाओं का त्वरित और अनियंत्रित विभाजन होता है और यह विभाजन एक गांठ की शक्ल लेता है, इसलिए कैंसर के उपचार के परिपेक्ष में ये नतीजे और भी महत्वपूर्ण हो गये थे। डॉ. बुडविज ने यह भी पाया कि सभी बीमार लोगों खून में एक विशेष तरह का लाइपोप्रोटीन भी बहुत कम था, जो लिनोलेनिक एसिड और सल्फर-युक्त प्रोटीन के प्रणय बंधन से बनता है। इस रक्त में लाल और स्वस्थ हीमोग्लोबिन के स्थान पर एक हरा पीला अस्वस्थ पदार्थ देखा गया। बिना लिनोलेनिक एसिड के हीमोग्लोबिन नहीं बनता है और शरीर की कोशिकाएं और ऊतक ऑक्सीजन के लिए तड़पती हैं।




इस पूरी शोध में मुख्य बात यह सामने आई कि लिनोलेनिक एसिड और सल्फर-युक्त प्रोटीन का मिश्रण अच्छे स्वास्थ्य के लिए पहली आवश्यकता है। क्या यह सब इतना सरल था? यह जानने के लिए उन्होंने नये प्रयोग करने का निश्चय किया। उन्होंने इसके लिए अलसी के कोल्ड-प्रेस्ड तेल को चुना। उन्होने बीमार लोगों पर परीक्षण शुरू किये और उनको अलसी का तेल और पनीर (जिसमें काफी सल्फर-युक्त प्रोटीन होते हैं) मिला कर देना शुरू कर दिया। तीन महीने बाद फिर उनके रक्त के नमूने लिये। नतीजे चौंका देने वाले थे। डॉ. बुडविज द्वारा एक महान खोज हो चुकी थी। कैंसर के इलाज में सफलता की पहली पताका लहराई जा चुकी था। लोगों के रक्त में फोस्फेटाइड और लाइपोप्रोटीन की मात्रा काफी बढ़ गई थी और अस्वस्थ हरे पीले पदार्थ की जगह लाल हीमोग्लोबिन ने ले ली थी। कैंसर के रोगी ऊर्जावान और स्वस्थ दिख रहे थे, उनकी गांठे छोटी हो गई थी, वे कैंसर को परास्त कर रहे थे। उन्होने अलसी के तेल और पनीर के जादुई और आश्चर्यजनक प्रभाव दुनिया के सामने सिद्ध कर दिये थे।




वे विभिन्न रसायनों की मदद से तैयार किये गये ट्रांसफैट युक्त कृत्रिम हाइड्रोजेनेट फैट के दुष्प्रभावों को सिद्ध कर चुकी थी। पूर्ण व आंशिक हाइड्रोजिनेटेड तेल (जो मार्जरिन, वेजिटेबल शोर्टनिंग और रिफाइंड तेलों में होते हैं) हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही घातक हैं। बाजार में उपलब्ध सभी खुले और पैकेटबंद खाद्य पदार्थ इन्हीं घातक फैट्स में बनाये जाते हैं।


जैसे ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों को डॉ. बुडविज की इस महान खोज के बारे में मालूम हुआ तो सब अलसी के पीले तेल पर शोध करने में जुट गये। अलसी का तेल लिनोलेनिक और लिनोलिक एसिड का सर्वोत्तम स्रोत है। वे पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो चुकी था। उन्हें जगह जगह व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया जाने लगा। पोलेन्ड के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध में पाया कि लोगों को आहार में संत्रप्त वसा की जगह अलसी का तेल देने से उनमें हृदयाघात की दर काफी कम हो जाती थी और अलसी के तेल में खून को पतला रखने, कॉलेस्ट्रोल कम करने और कैंसररोधी गुण पाये गये। पटना, बिहार में शोधकर्ताओं ने गायों पर किये अपने परीक्षणों में पाया कि जिन गायों को अलसी का तेल दिया गया, उनमें कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम हुई और एथेरोस्क्लिरोटिक प्लॉक नहीं देखा गया। ऑस्ट्रेलिया के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जानवरों को अलसी का तेल पिलाने से रक्तचाप कम होता है। सबसे अच्छी खबर यह थी कि अलसी का तेल कैंसर ठीक करता है। ऑस्ट्रिया में हुई तीन वर्ष की शोध से यह निष्कर्ष निकला कि अलसी का तेल कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि कम करता है। एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि उपरोक्त सारे परीक्षणों में जैविक अलसी के कोल्ड-प्रेस्ड एक्स्ट्रा वर्जिन तेल का प्रयोग किया गया। अलसी का तेल प्रकाश, तापमान और हवा के प्रति बहुत संवेदनशील है।




डॉ. यॉहाना बुडविज ने प्रमाणित किया था कि बीमार व्यक्ति में लिनोलेनिक एसिड की मात्रा बहुत ही कम पाई जाती है। जब कि स्वस्थ व्यक्ति में लिनोलेनिक एसिड और बढ़िया सल्फरयुक्त प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में होता है, जिनके बिना हीमोग्लाबिन का निर्माण संभव नहीं है। फलस्वरूप व्यक्ति में ऑक्सीजन की अल्पता होती है। उन्होंने दस वर्ष तक कैंसर और अन्य गंभीर रोगियों का ओम खंड (अलसी के तेल, पनीर, फल और मेवों का मिश्रण) द्वारा सफलतापूर्वक उपचार किया, जिसमें उन्हें 90% सफलता मिली। इन सफलताओं ने उन्हें विश्व की महान चिकित्सक बना दिया।




पिछले पच्चीस वर्षों में दुर्भाग्यवश हमारे भोजन में ओमेगा-6 श्रेणी के फैट की मात्रा नाटकीय अनुपात में बढ़ी है। इस बढ़त में हाइड्रोजिनेटेड फैट और आंशिक हाइड्रोजिनेटेड फैट की मात्रा बहुत ज्यादा रही हैं। ये प्लास्टिक तथा मृत फैट हैं, शरीर के लिए जानलेवा विष के सिवा कुछ नहीं हैं और शरीर के चयापचय में इनकी कोई जीवरसायनिक भूमिका नहीं है। इनमें घातक, कठोर और चिपचिपे ट्रांस फैट की काफी मात्रा होती है।




हमारा शरीर आवश्यक वसाअम्ल की कमी की क्षति-पूर्ति करने की कौशिश करता है। लेकिन यदि लंबे समय तक फैटी एसिड की कमी हो तो शरीर में फैटी डिजनरेशन (कैंसर और हृदयरोग) हो जाता है। शरीर में आवश्यक वसा अम्लों की क्षति-पूर्ति के लिए अलसी का तेल प्रयोग करते हैं क्योंकि यह पृथ्वी पर लिनोलेनिक और लिनोलिक एसिड का सर्वोत्तम स्रोत है। शोधकर्ता अलसी के तेल को बचाव और उपचार दोनों के लिए आदर्श मानते हैं। आवश्यक वसा अम्ल प्रकाश, तापमान और हवा के संपर्क में आने पर जल्दी ही खराब हो जाते हैं। अतः इनके निर्माण, पैकिंग और भंडारण में सावधानी आवश्यक है। गति और लय को सही रखते हैं।




अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल (ALA) शरीर में अंततः 1 और 3 श्रंखला के कोशिकीय हार्मोन प्रोस्टाग्लेन्डिन में परिवर्तित हो जाते हैं जो शरीर में विभिन्न कार्यों को अंजाम देते हैं।


अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल Alpha Linolenic Acid के प्रमुख कार्य




ऊर्जा- आवश्यक वसा अम्ल शरीर को ऊर्जा, शक्ति और उत्साह से भर देते है। ये शारीरिक और मानसिक विकास और चेतन्यता के लिए आवश्यक हैं।


हृदय रोग- यह थक्का-रोधी है, धमनियों को स्वीपर की तरह साफ रखता है और हृदयाघात, स्ट्रोक से बचाव करता है। 1 और 3 श्रंखला के प्रोस्टाग्लेन्डिन स्रावित होने के कारण रक्तचाप कम करता है, प्रदाह कम करता है, बिंबाणुओं का चिपचिपापन कम करता है और घातक एरिद्मिया से बचाव करता है। यह ट्राइग्लासराइड तथा LDL कॉलेस्ट्रोल कम और HDL कॉलेस्ट्रोल को बढ़ाता है। यह हृदय की पेशियों के लिये ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है।


यह स्टीरोयड और अन्य हार्मोन्स का निर्माण तथा उन्हें अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंचाने में सहायक हैं।


त्वचा- यह त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनाते हैं। यह बालों की जड़ों को भरपूर पोषण दे कर बालों को स्वस्थ, चमकदार व मजबूत बनाती हैं। अलसी एक उत्कृष्ट भोज्य सौंदर्य प्रसाधन है जो त्वचा में अंदर से निखार लाता है। अलसी त्वचा की बीमारियों जैसे मुहांसे, एग्ज़ीमा, दाद, खाज, सूखी त्वचा, खुजली, छाल रोग (सोरायसिस), ल्यूपस, बालों का सूखा व पतला होना, रूसी, बाल झड़ना आदि में काफी असरकारक है। यह त्वचा के दाग, धब्बे, झाइयां व झुर्रियां दूर होती हैं। अलसी आपको युवा बनाये रखती है।


प्रजनन तंत्र- यह विवर्धित प्रोस्टेट ग्रंथि, बांझपन, अभ्यस्त गर्भपात, नामर्दी, शीघ्रपतन, नपुंसकता आदि के उपचार में महत्वपूर्ण योगदान देती है। यह दुग्धवर्धक है। रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में ईस्ट्रोजन का स्त्राव कम हो जाता है और महिलाओं को कई परेशानियां जैसे तमतमाहट (Hot flashes), ओस्टियोपोरोसिस आदि होती हैं। ओमेगा-3 इन सबमें बहुत राहत देता है और मासिक धर्म संबंधी अनियमितताएं ठीक करता है।


प्रदाह-रोधी- यह आर्थ्राइटिस, शियेटिका, ल्युपस, गाउट, ओस्टियोआर्थ्राइटिस आदि में गुणकारी है।


मधुमेह- यह शर्करा नियंत्रित रखता है और मधुमेह के दुष्प्रभावों का जोखिम कम करते हैं। यह भूरी वसा कोशिकाओं को उत्तेजित करते हैं, बुनियादी चयापच दर (BMR) बढ़ाता है और वजन कम करने में सहायता देता है।


मस्तिष्क- मस्तिष्क और नाड़ियों के लिए आवश्यक फोस्फोलिपिड ओमेगा-3 से बनता है। यह मस्तिष्क की संरचना और विभिन्न कार्यों के लिए आवश्यक है और संज्ञानात्मकता, स्मृति, मनोदशा और एकाग्रता में वृद्धि करता है। यह मन को शांत रखता है, चित्त प्रसन्न रखता है, विचार अच्छे आते हैं, तनाव दूर होता है तथा क्रोध नहीं आता है। इसके सेवन से मन और शरीर में एक दैविक शक्ति और ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह नाड़ियों में संदेशों का प्रवाह तेज करता है। इसलिये शिजोफ्रेनिया, पार्किंसन्स, एल्जाइमर रोग, डायबीटिक न्युरोपैथी और मल्टीपल स्क्लिरोसिस के उपचार में बहुत लाभ दायक है। यह मस्तिष्क को ऊर्जा देते हैं। अलसी से नज़र अच्छी हो जाती है, रंग ज्यादा स्पष्ट व उजले दिखाई देने लगते हैं और धीरे-धीरे ऐनक के नम्बर भी कम हो सकते हैं। यह व्यायाम के बाद पेशियों की थकावट चुटकियों में दूर कर देता है।


स्टेफ संक्रमण- अलसी का तेल कठिन स्टेफ संक्रमण के रोगी में कीटाणुओं का सफाया करता है।


कैंसर- यह बिना रक्षाप्रणाली को नुकसान पहुंचाये कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करता है। यह कैंसर की गांठो को छोटा करता है।


रक्षा प्रणाली- आवश्यक वसा अम्ल शरीर की रक्षा प्रणाली को सुदृढ़ कर शरीर को बाहरी संक्रमण या आघात से लड़ने में मदद करता हैं। सारांश में आवश्यक वसा अम्लों के बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है और इनकी कमी होने पर शरीर कई बीमारियों की चपेट में आ जाता है।


ये गुर्दे और पित्त की थैली की पथरियों को घोल देते है।


कोशिका की स्वस्थ झिल्लियों का आधार-ये कोशिका की झिल्लियों को आकार प्रदान करती हैं, अपेक्षित तरलता बनाये रखती है और उत्तेजित होने पर जीव विद्युतधारा प्रवाहित कर विभिन्न संदेश संचारित करते हैं।


विभिन्न कोशिकीय क्रियाओं में सहायक- ये विभिन्न प्रोस्टाग्लेन्डिन बनाते हैं जो स्थानीय हार्मोन की तरह कोशिका और उत्तकों के विभिन्न कार्यों जैसे रक्तचाप, बिम्बाणु के चिपचिपापन और पेशियों के संकुचन को नियंत्रित करते हैं। ये हृदय की क्रोमोजोम और जैनेटिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। ये कोशिका विभाजन में क्रोमोजोम की गति को नियंत्रण में रखते है और कोशिका विभाजन के बाद नवजात कोशिकाओं की भित्तियों का निर्माण करता है।


ट्रांसफैट


प्राकृतिक आवश्यक वसा अम्लों का आणविक विन्यास सिस cis-configuration होता है। जिसमें द्वि-बन्ध पर दोनों हाइड्रोजन लड़ के एक ही ओर जुड़े रहते हैं जिससे कार्बन की लड़ मुड़ जाती है और लड़ के अन्दर इलेक्ट्रॉन का एक बादल सा बन जाता है। उच्च तापमान पर गर्म करने या हाइड्रोजनिकरण की प्रक्रिया में हाइड्रोजन का विन्यास उल्टा यानी ट्रांस Trans-configuration हो जाता है। यानी दोनों हाइड्रोजन विपरीत दिशा में जुड़ते हैं, कार्बन की लड़ सीधी रहती है जिससे यह सामान्य तापमान पर चिपचिपा, सख्त और ठोस रहता है। ये ट्रांसफैट शरीर के लिए पूर्णतः असामान्य, अप्राकृतिक और बेकार होते हैं। ये शरीर के लिए एक जानलेवा विष के सिवा कुछ नहीं है। ये रक्त वाहिकाओं, यकृत और अन्य स्थानों पर फैट का जमाव बढ़ाते हैं, प्लेटलेट को ज्यादा चिपचिपा बनाते हैं और हृदयाघात तथा स्ट्रोक जैसी विषम रोग उत्पन्न करते हैं। ये कोशिका की झिल्लियों की पारगम्यता को प्रभावित कर देते हैं। जिससे कोशिकाओं में विभिन्न अणुओं की आवाजाही बिगड़ जाती है। ट्रांसफैट आवश्यक वसा अम्लों की सामान्य क्रियाप्रणाली को अवरूद्ध करते हैं, एन्जाइम्स को निष्क्रिय कर प्रोस्टाग्लेन्डिन के निर्माण को बाधित करते हैं जिससे शरीर में आवश्यक वसा अम्लों की कमी पैदा कर देते हैं। ट्रांसफैट इन्सेक्टिसाइड्स को शरीर से विसर्जित करने वाले एन्जाइम्स को निष्क्रिय करते हैं और कैंसर के विकास को गति देते हैं। शरीर को 95% ट्रांसफैट हाइड्रोजिनेटेड फैट (रिफाइन्ड तेल, मार्जरिन, शोर्टनिंग आदि) द्वारा तैयार किये हुए व्यंजनों, फास्ट फूड, जंक फूड, मांसाहारी व्यंजनों, मक्खन आदि से मिलते हैं। बाजार में उपलब्ध सभी परिष्कृत खाद्य पदार्थ जैसे ब्रेड, क्रेकर, पाइज़, कुकिज, डोनट्स, मफिन्स, बिस्किट्स, पिज्ज़ा, कचौड़ी-समोसे, भटूरा, बर्गर, अंकल चिप्स, सलाद ड्रेसिंग, पीनट बटर आदि ट्रांसफैट से भरपूर होते हैं।








































हम मधुमेह पर बातचीत कर रहे हैं और इन्सुलिन के खोज की अनूठी और अमर दास्तान की चर्चा करें, यह ठीक नहीं होगा। यह मधुमेह की इस -पुस्तक के साथ भी अन्याय होगा। प्राचीन काल में हमारे महान आयुर्वेद शास्त्री सुश्रुत ने मधुमेह के बारे में बहुत कुछ लिखा है। 1500 वर्ष ईसा पूर्व पापायरस ने मधुमेह के उपचार के कई नुस्के बताये थे। अरेटियस ने दूसरी शताब्दी में मधुमेह के बारे में बताया था कि इस रोग में शरीर का मांस गलकर मूत्र द्वारा निकल जाता है और अन्ततः रोगी की मृत्यु हो जाती है।

उन्नीसवीं शताब्दी में यह देखा गया कि डायबिटीज से मरने वाले रोगियों का पेन्क्रियास  अक्सर क्षतिग्रस्त होता था। 1869 में युवा चिकित्सक पॉल लेंगरहेम्स ने पाया कि पेन्क्रियास,  जिसका मुख्य कार्य पाचन रस बनाना है, में कुछ विशिष्ट तरह की कोशिकाओं के झुंड होते हैं। ये पूरे पेन्क्रियास  में फैले होते हैं और इनका कार्य अभी तक किसी को मालूम नहीं था। कालांतर में हुई खोज से स्पष्ट हो गया था कि कोशिकाओं के इस झुंड में कुछ कोशिकाएं, जिन्हें बीटा कोशिकाएं कहा गया, इन्सुलिन का  स्राव करती हैं। कोशिकाओं के इस झुंड को आइलेट्स ऑफ लेंगरहेम्स" नाम दिया गया क्योंकि इस झुंड को पहली बार इन्होंने ही पहचाना था।


सन् 1889 में अपने परीक्षणों से फिजियोलोजिस्ट मिनकोस्की और चिकित्सक वोन मेरिंग ने यह सिद्ध कर दिया था कि यदि कुत्ते का पेन्क्रियास  निकाल दिया जाये तो कुत्ते को डायबिटीज हो जाती है। लेकिन यदि कुत्ते के पेन्क्रियास  की नलिका, जिसके द्वारा पाचन रस आंत तक पहुंचता है, को बांध दिया जाये तो कुत्ते को थोड़ी पाचन संबम्धी तकलीफ जरूर होती है पर डायबिटीज नहीं होती है। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष    निकाला कि शरीर में पेन्क्रियास  के कम से कम दो कार्य हैं। एक पाचन रस बनाना और दूसरा कोई अज्ञात तत्व बनाना जो रक्त शर्करा को नियंत्रित करता है। यदि इस अज्ञात तत्व को पहचान लिया जाये तो डायबिटीज के सारे रहस्य परत दर परत खुलते चले जायेंगे।

परंतु उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर तक डायबिटीज एक गम्भीर और लाइलाज महामारी मानी जाती रही।  इसके कारणों का पता लगाने के लिये विश्वभर में वैज्ञानिक और चिकित्सक शोध कर रहे थे, पर कहीं से भी  कोई अच्छे परिणाम सामने नहीं आ रहे थे। तब 14 नवंबर, 1891 को कनाडा में एलिस्टन, ओनारियो के मेहनती और अमीर कृषक परिवार में एक महान सितारा पैदा हुआ, जिनका नाम था फ्रेडरिक बेंटिंग। उनका परिवार उत्तरी आयरलैंड से आकर ओनारियो  में बसा था। बेंटिंग लिखायी पढ़ाई में ज्यादा तेज-तर्रार नहीं थे और मुश्किल से ही हाई स्कूल पास कर सके थे।  फिर बैंटिग ने विक्टोरिया कालेज के आर्टस संकाय में प्रवेश लिया और पहली छमाही परीक्षा में ही जनाब फेल हो गये।

परिवार वालों ने उन्हें समझाया, बुझाया, सांत्वना दी और अपने प्रभाव से टोरोन्टो यूनिवर्सिटी के मेडीसिन स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। लेकिन मेडिकल स्कूल ने उसे हिदायत दी कि उन्हें आर्टस स्कूल में जाकर पुनः परीक्षा पास करने पर ही यह प्रवेश मान्य होगा।  मेडिकल स्कूल में भी वह कभी अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर सके। तभी प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया और वे कनाडा की सेना में भर्ती होना चाहते थे। वे साक्षातकार देने भी गये पर दो बार तो उनकी नजर खराब होने के कारण उन्हें वापस भेज दिया गया।  तीसरी बार उन्होंने फिर प्रयास किया, इस बार वे सेना में भर्ती होने में सफल हो ही गये। इसके साथ उन्होंने अपना अध्ययन भी जारी रखा। मेडीसिन स्कूल से पास होते ही वह सेना में मेडीकल ऑफिसर के पद के लिए चुन लिए गये। 1917 में उनको सेना के एक खास मिशन पर विदेश भेजा गया जिसमें उन्होंने अपनी बहादुरी का परिचय दिया। रोगियों की सेवा  करते करते एक बार वे घायल भी हो गये थे।  उनकी बहादुरी के लिए उन्हें मिलेट्री क्रॉस" पुरस्कार दिया गया।


1919 उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और  लन्दन, ओनारियो में मेडिकल प्रेक्टिस शुरू कर दी। यहां उन्होंने अपनी पुरानी मित्र एडिथ से सगाई भी की। इसके साथ ही उन्होंने पश्चिमी ओनारियो के विश्वविद्यालय में ऑर्थोपेडिक्स विभाग में  विख्याता का पद स्वीकार कर लिया और प्रोफेसर विल्सन की रिसर्च टीम में भी शामिल हो गये।  लेकिन वे अच्छा व्याख्यान नहीं दे पाते थे। उन्हीं दिनों एक बार उन्होंने मेडिकल जर्नल में मोसेज बेरोन का लेख पढ़ा,  जिसमें यह परिकल्पना की गई थी कि यदि मिनकोस्की के प्रयोगों को आगे बढ़ाया जाये तो पेन्क्रियास से निकलने वाले स्राव को अलग किया जा सकता है, जिससे मधुमेह का इलाज किया जा सके। 

बेंटिग इस लेख से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने इस विषय पर काफी चिंतन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि पेनक्रियाज में बनने वाले पाचन रस हो न हो आइलेट्स ऑफ लेंगरहेम्स"  में बनने वाले अज्ञात स्राव को नष्ट कर देते हों। इसलिए वे  पेनक्रियाज की नलिका को बांध देना चाहते थे, इससे पेनक्रियाज क्षतिग्रस्त होगी, सिकुड़ जायेगी और पाचन रस बनाना बंद कर देगी। फिर इस पेनक्रियाज से अज्ञात स्राव को निकाल लिया जायेगा जिससे डायबिटीज के रोगियों का इलाज किया जा सकता है। प्रोफेसर विल्सन ने बेंटिग को टोरोंटो विश्वविद्यालय में फिजियोलोजी के प्रोफेसर जे.जे.आर. मेक्लियोड से मिलने की सलाह  दी और कहा कि वे उन्हें परीक्षण करने के लिए प्रयोगशाला उपलब्ध करवा लकते हैं।

बेंटिग ने प्रोफेसर मेक्लियोड को अपनी परिकल्पना बताई। पहले तो वे बेंटिग पर भड़के और फिर बोले, “क्या तुम पागल हुए हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि बड़े बड़े महारथी सूरमां बरसों से इस विषय पर रिसर्च कर रहे हैं और आज तक किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ है तो तुम जैसा अनुभहीन व्यक्ति कौन से तीर मार लेगा।परंतु बेंटिग ने हार न मानी, मेक्लियोड को मनाने का हर संभव यत्न किया, खूब मिन्नते की। वे माने तो जरूर पर झुंझला कर बोले, " ठीक मैं तुम्हें दो महीने के लिए एक पुरानी प्रयोगशाला और परीक्षण करने के लिए कुछ कुत्ते दे देता हूं। पर याद रहे ठीक दो महीने बाद तुम्हें प्रयोगशाला खाली करनी पड़ेगी। (वे थोड़ा रुके और बेंटिंग को ऊपर से नीचे तक देख फिर बोले)  पर तुम्हें रसायनशास्त्र का ज्यादा ज्ञान भी नहीं है, मैं कौशिश करता हूं कि तुम्हारी सहायता के लिए एक रसायनशास्त्री को नियुक्त कर दूं।

27 फरवरी, 1899 को वेस्ट पेम्ब्रोक, वाशिंगटन काउन्टी, मायने  में चार्स हरबर्ट बेस्ट नाम का एक और महान सितारा पैदा हुआ। इनके पिता डॉक्टर थे। बेस्ट टोरोंटो विश्वविद्यालय में फिजियोलोजी और बायोकेमिस्ट्री में ग्रेजुएशन कर रहे थे। जब वे फाइनल इयर में थे तब उन्हें और नोबेल को  प्रोफेसर मेक्लियोड ने डायबिटीज की खोज हेतु एक चिकित्सक के साथ कार्य करने के लिए बुलाया। मेक्लियोड  को दोनों में से एक को चुनना था पर दोनों ही यह कार्य करना चाहते थे। इसलिए यह निर्णय हुआ कि सिक्का उछाला जायेगा। टॉस भाग्यशाली  बेस्ट ने जीता।  यह चिकित्सक और कोई नहीं बेंटिग ही थे।  दोनों युवा चिकित्सकों को प्रयोगशाला देकर मेक्लियोड छुट्टियां मनाने स्कॉटलैंड के लिए रवाना हो गये।

इस तरह बेंटिंग और बेस्ट मिले और कुत्तों पर अपने परीक्षण करने की रूपरेखा बनाने लगे। वे दोनों पक्के दोस्त बन गये थे। दोनों में उत्साह की कोई कमी नहीं थी। ये 1921 की गर्मियों के दिन थे। रोज सुबह दोनों उस छोटी सी, पुरानी लेब में पहुंच जाते। लेब ऐसी कि थी कि उसमें ठीक से सूरज का प्रकाश भी नहीं आता था, कई वर्षों से उसका रंग रोगन भी नहीं हुआ था। लेब में एक बैंच पड़ी थी और एक लकड़ी की पुरानी मेज पर कुछ शीशियां रखी हुई थी। कुत्तों का कमरा ऊपर था। कुत्तों के कमरे के बगल में एक बदबूदार छोटी सी कोठरी थी जिसमें कुछ औजार और बेकार फटे पुराने चिथड़े रखे थे। उनके पास पैसों और साधनों की भारी कमी थी। कुत्तों को सिखाने, नहलाने और उनकी ब्लड शुगर करने के लिए एक सहायक रखने के भी पैसे नहीं थे।  तब किसको मालूम था कि इस पुरानी, गंदी,  बदबूदार और बेकार पड़ी लेब में  एक जानलेवा और लाइलाज बीमारी डायबिटीज का उपचार की खोज होने जा रही थी।


सबसे पहले उन्होंने कुछ कुत्तों का ऑपरेशन करके उनका पेनक्रियाज निकाल लिया। ऑपरेशन के बाद कुत्तों की ब्लड शुगर बढ़ने लगी और डायबिटीज के लक्षण दिखने लगे यानी उन्हें डायबिटीज हो गई। दूसरे परीक्षण में उन्होंने कुछ कुत्तों  के पेन्क्रियास  की डक्ट को बांध दिया। जिससे पेन्क्रियास में पाचन रस बनना बंद हो गया और वह सिकुड़ने लगा। 5-6 हफ्ते  बाद उन्होने दूसरे कुत्ते का पेन्क्रियास  निकाला और उसके छोटे छोटे टुकड़े करके नमक के घोल में डाल कर फ्रीजर में जमने के लिए रख दिया। आधा जमने पर  पेन्क्रियास  को पीसा और छान कर उसका रस निकाल लिया। इसे उन्होंने आइलेटिन का नाम दिया।

अब आई शनिवार 30 जुलाई, 1921 की वो एतिहासिक सुबह, इन्सुलिन के खोज की घड़ी। उन्होंने उस रस आइलेटिन का 4 एम.एल. कुत्ते नं. 391 से 410  को इंजेक्ट किया। कुत्तों का ब्लड शुगर 0.20 से 0.12 प्रतिशत कम हो गया। उन्होंने दो घंटे बाद कुत्तों को फिर इंजेक्ट किया। कुत्ते में  डायबिटीज के लक्षण ठीक होने लगे।  चिकित्सा जगत में एक बड़ी खोज हो चुकी थी। यह दिन इतिहास के पन्नों में सुनहरी स्याही से लिखा जा चुका था। उन्होंने पूरी रिपोर्ट प्रोफेसर मेक्लियोड को तार द्वारा भेजी। तार पढ़ कर मेक्लियोड अचंभित थे। वे जान चुके थे कि एक महान खोज हो चुकी है। उसे यह बात हज़म नहीं हो रही थी कि आज के दो अनाड़ी लड़के इतनी महान खोज कर चुके थे। वे यह सोचते हुए तुरंत वापस लौटे कि कैसे इस विजय का सेहरा अपने माथे पर बांधें। 

मेक्लियोड ने आते ही ऐसा जाल बिछाना शुरू कर दिया कि खोज का पूरा श्रेय उन्हीं को मिले। उन्होंने आइलेटिनका नाम  बदल कर "इन्सुलिन रख दिया। मेक्लियोड ने उन्हें अच्छी लेब, पर्याप्त धन और सभी संभव संसाधन भी मुहैया करवाए।  उनकी मदद के लिए अपने एक बायोकेमिस्ट्री के स्कॉलर कोलिप को भी उनकी टीम में शामिल कर दिया।  कोलिप को इंसुलिन को शोधन करने का कार्य सौंपा गया।  उसने इस पूरे प्रकरण की जानकारी  टोरोंटो विश्वविद्यालय को दे दी।

उनकी खोज की खबरें  चिकित्सा जगत में चर्चित होने लगी थी। तभी मई 1922 में वाशिंगटन में हुई एक मेडिकल कान्फ्रेन्स में पूरी रिसर्च के बारे में विस्तार से चर्चा हुई।  अब बारी थी इंसुलिन के मानव परीक्षणों की।  उनके द्वारा शोधित किये गये आइलेटिनको सबसे पहले भाग्यशाली लियोनार्ड थोमस को दिया गया जिन्हें टोरेन्टो हॉस्पिटल में डायबिटीज के कारण बेहोशी की हालत में भर्ती करवाया गया था। पहली बार उसे इन्सुलिन का इन्जेक्शन दिया गया,  जिससे उन्हें  चमत्कारी लाभ हुआ और कुछ ही दिनों में पूर्णतया स्वस्थ होकर वह घर लौट गये। कई वर्षों तक स्वस्थ जीवन जीने के बाद एक मोटरसायकिल दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई।

अब बेंटिंग और बेस्ट के लिये टोरेन्टो विश्वविद्यालय परिसर में एक शोध केन्द्र स्थापित किया गया, जिसका नाम बेंटिंग और बेस्ट रिसर्च सेन्टर रखा गया। अभी भी बहुत काम होना बाकी था इन्सुलिन को शुद्ध करने की तकनीक विकसित करनी थी।  अपने परीक्षणों के लिए अब उन्हें ज्यादा आइलेटिन की आवश्यकता थी, जो कुत्तों से मिल पाना मुश्किल था। अतः उन्होंने बैलों के पेन्क्रियास से आइलेटिन निकालना शुरू किया।

लेकिन तभी नोबेल प्राइज कमेटी ने मेडीकल और फिजियोलोजी में नोबेल प्राइज के लिये बेंटिग और मेक्लियोर्ड का नाम प्रसारित हुआ। 1923 में यह सुनकर बेंटिग को बहुत बुरा लगा। इस बात पर बहुत वाद-विवाद हुआ और नोबेल प्राइज कमेटी की बहुत छीछालेदर हुई। कई बार नोबेल प्राइज कमेटी अपने पक्षपातपूर्ण रवैये के लिए विवादों में रही है। बेंटिंग ने कहा कि यदि बेस्ट को नोबल प्राइज नहीं मिलता है तो वे भी नोबेल प्राइज स्वीकार नहीं करेंगे। पर उनके मित्रों और सहयोगियो ने उसे समझाया कि पहली बार किसी कनाडा के नागरिक को नोबेल प्राइज मिलने जा रहा है, उनकी महान खोज को दुनिया के हर डायबिटीज रोगी को पहुंचाने का वास्ता दिया गया तब बड़ी मुश्किल से वे नोबेल पुरस्कार लेने के लिये तैयार हुऐ लेकिन  अपनी नोबेल प्राइज की राशि का आधा भाग अपने बेस्ट मित्र को दे दिया। मेक्लियॉड ने भी आधी इनाम की  आधी राशि कोलिप को सौंपी।

इस पूरी टीम ने "इन्सुलिन का पेटेन्ट करवाया और इससे अर्जित होने वाली धनराशि के पूरे अधिकार टोरोंटो विश्वविद्यालय को समर्पित कर दिये। इन्सुलिन की खोज के तुरंत बाद इलि लिली कंपनी ने बड़े जोर शोर से व्यावसाइक स्तर पर इन्सुलिन का निर्माण शुरू कर दिया। 


बेंटिग के उनकी प्रेमिका एडिथ से अच्छे  संबंध नहीं रहे और वे शादी भी नहीं हो सकी। तब उनकी जिंदगी में आई टोरेन्टो की रईस धनाड्य स्त्री मेरियोन रोबिन्सन, जिससे उन्होंने विवाह किया, परंतु यह विवाह  ज्यादा नहीं चला और 1929 में उनका विवाह-विच्छेद हो गया। फिर कुछ वर्षों बाद उन्हें हेनरिता बोर्न नाम की सुन्दर स्त्री से प्यार हुआ,  जिससे उन्होंने 1939 में विवाह रचाया।        

द्वितीय विश्व युद्ध में बेंटिग पुनः कनाड़ा की सेना में भर्ती हो गये और 1941 में मेडिकल मिशन पर न्यूफाउंडलेंड से इंग्लेंड जाते समय प्लेन क्रेश होने के कारण मृत्यु हो गयी।  बेंटिग की मृत्यु के बाद बेस्ट ने टोरेन्टो विश्वविद्यालय के बेंटिग और बेस्ट रिसर्च सेन्टर का संचालन पुनः सम्भाला।  वहां उन्होंने हिपेरिन पर काफी शोध किया और 1978 में उनकी भी मृत्यु हो गयी।




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कॉलेस्ट्रोल का चक्रव्यूह


कॉलेस्ट्रोल मोम के समान एक रवेदार सफेद स्टीरोल है जो सभी स्तनधारियों की कोशिकाओं की झिल्लियों और रक्त में पाया जाता है। कॉलेस्ट्रोल ग्रीक शब्दों कोले (Bile), सिटिरोज (Solid) और ओल (Alcohol) से बना है। 1769 में फ्रेंकोस पोल्टियर ने पित्ताशय की पथरी में पहली बार कॉलेस्ट्रोल को चिन्हित किया था। यह कोशिकाओं की झिल्लियों का प्रमुख घटक है जो कोशिकाओं को वांछित पारगम्यता (Permeability) और तरलता (Fluidity) प्रदान करता है। यह पित्त अम्ल (Bile salts), स्टिरोइड तथा सेक्स हार्मोन्स, और वसा में घुलनशील विटामिन-ए, विटामिन-डी, विटामिन-ई और विटामिन-के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।


कॉलेस्ट्रोल सभी जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है और नियमित शरीर में बनता रहता है। एक व्यक्ति सामान्यतः 1 से 1.25 ग्राम कॉलेस्ट्रोल का निर्माण रोजाना करता है। शरीर में कुल कॉलेस्ट्रोल की कुल मात्रा लगभग 35 ग्राम होती है। आहार से हमें औसतन 200-300 मि.ग्रा. कॉलेस्ट्रोल रोज प्राप्त होता है। हमारा शरीर कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को संतुलित रखते की कौशिश करता है, इसीलिए शरीर । यकृत कॉलेस्ट्रोल का विसर्जन पित्त-अम्ल के रूप में करता है जिसका अधिकतर भाग छोटी आंत में फिर से रक्त में अवशोषित हो जाता है और पुनर्चक्रित (Recycle) होता है। वानस्पतिक स्टीरोल और फाइबर की उपस्थिति में यह अवशोषण कम हो जाता है और फाइबर की अनुपस्थिति अवशोषण को बढ़ाती है।


कॉलेस्ट्रोल कोशिका की भित्तियों या झिल्लियों के निर्माण और रखरखाव के लिए अतिआवश्यक है और उनको तरलता प्रदान करता है। कॉलेस्ट्रोल का हाइड्रोक्सिल ग्रुप (OH group) फोस्फोलिपिड और स्फिंगोलिपिड के ध्रुवीय सिर के सम्पर्क में रहते हैं जबकि बड़ी स्टिरोइड तथा ङाइड्रोकार्बन लड़ अन्य वसाअम्लों की लड़ों के साथ भित्ती में धंसी रहती है। भित्तियों की यह संरचना प्रोटोन्स (Positive hydrogen ions) और सोडियम ऑयन्स की पारगम्यता को कम करती है। कॉलेस्ट्रोल कोशिका में संकेतों की आवाजाही जैसे कोशिकीय संकेतन (cell signaling) और नाड़ी संदेश प्रवाह के लिए भी जरूरी है। कॉलेस्ट्रोल भित्तियों के केवियोला और क्लेथ्रिन युक्त गड्डों की संरचना एवम् कार्यप्रणाली के लिए भी आवश्यक है। कॉलेस्ट्रोल कोशिकीय संकेतन हेतु भित्तियों में वसीय नौकाओं (Lipid rafts) का निर्माण भी करते हैं।

कॉलेस्ट्रोल कोशिकाओं की कई चयापचय क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यकृत में कॉलेस्ट्रोल पित्त-अम्ल बनाने में सहायक है, जो पित्ताशय में एकत्रित होता रहता है। पित्त आहार पथ में वसा तथा विटामिन ए, डी, ई एवम् के को घुलनशील बनाता है और उनके अवशोषण में सहायता देता है।

कॉलेस्ट्रोल विटामिन-डी एवम् एडरीनल ग्रंथि से स्रावित कोर्टिजोल तथा एल्डोस्टिरोन और सेक्स हार्मान प्रोजेस्ट्रोन, इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टिरोन के निर्माण में भी सहायता देते हैं। शुद्ध कॉलेस्ट्रोल एक एन्टी-ऑक्सीडेन्ट भी है।

आहार स्रोत

जीवधारी वसा ट्राइग्लीसराइड्स, फोस्फोलिपिड और कॉलेस्ट्रोल का जटिल मिश्रण होते हैं। कॉलेस्ट्रोल के मुख्य स्रोत मक्खन, पनीर, अंडा, अंडे की ज़र्दी, मुर्गा, मांस, कलेजी और मछली हैं। मानव दूध में भी पर्याप्त मात्रा में कॉलेस्ट्रोल होता है। एक विशेष बात यह है कि अलसी में कॉलेस्ट्रोल से मिलता जुलता तत्व फाइटोस्टिरोल होता है जो रक्त में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम करता है।


आहार और जीवनशैली में सुधार लाकर कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम की जा सकती है। जीवधारी वसा का सेवन कम करने से कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम होती है। जो व्यक्ति कॉलेस्ट्रोल कम करना चाहते हैं, उन्हें कैलोरी का सिर्फ 7% संतृप्त वसा से लेना चाहिये और आहार में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा 200 मि.ग्रा. से कम रखने की तलाह दी जाती है।

आजकल इस भ्रांति पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है कि आहार में कॉलेस्ट्रोल कम लेने से हृदयरोग और हृदयाघात का जोखिम कम होता है, क्योंकि आहार में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम होने की सूरत में शारीरिक आवश्यकता की आपूर्ति एवम् संतुलन बनाये रखने के लिए शरीर ज्यादा कॉलेस्ट्रोल बनाता है।


शरीर की कुल आवश्यकता का 20-25% कॉलेस्ट्रोल यकृत में बनता है। यकृत के अलावा यह आंतों, एडरिनल ग्रंथि और प्रजनन अंगों में भी बनता है। कॉलेस्ट्रोल के निर्माण की प्रक्रिया में पहले एसीटाइल केन्ज़ाइम-ए (Acetyl CoA) और एसीटोएसीटाइल कोएन्ज़ाइम-ए (Acetoacetyl-CoA) के एक एक अणु किण्वक एचएमजी कोएन्ज़ाइम-ए सिंथेज की मदद से निर्जलीकृत होकर 3-हाइड्रोक्सिल-3-मिथाइलग्लुटेराइल कोएन्जाइम-ए (3-hydroxy-3-methylglutaryl CoA) बनाते हैं। किण्वक एचएमजी कोएन्ज़ाइम-ए रिडक्टेज (HMG-CoA reductase) की सहायता से यह अपघटित होकर मेवेलोनेट में परिवर्तित होता है। मेवेलोनेट एटीपी के दो अणु और दो एंजाइम मेवलोनेट काइनेज तथा फोस्फोमेवलोनेट काइनेज का मदद द्वारा 5-पायरोफोस्फोमेवलोनेट बनाता है, जो पाइरोफोस्फोमेवलोनेट डिकार्बोक्सीलेज एंजाइम की मदद से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड छोड़ कर आइसोपेन्टेनाइल पाइरोफोस्फोट में परिवर्तित होता है। यह कई रसायनिक क्रियाओं का प्रमुख घटक है। इसके तीन अणु मिल कर एंजाइम आइसोपेन्टेनाइल पाइरोफोस्फेट आइसोमरेज़ की मदद से फर्नेसाइल पाइरोफोस्फोट बनाते हैं। एन्डोप्लाज़मिक रेटिकुलम में फर्नेसाइल पाइरोफोस्फोट के दो अणु जुड़ कर स्किवेलीन सिंथेज़ की मदद लेकर स्क्वेलीन बनाते हैं। स्क्वेलीन एंजाइम स्क्वेलीन मोनोक्सीजिनेज की मदद से स्क्वेलीन-2,3-एपोक्साइड बनाता है। जो 2,3-ऑक्सिडोस्क्वेलीन लेनोस्टिरोल साइक्लेज़ स्क्वेलीन को लेनोस्टिरोल में बदलते हैं। आखिर में लेनोस्टिरोल से कॉलेस्ट्रोल बनता है। कॉलेस्ट्रोल तथा फैटी एसिड के निर्माण और नियंत्रण सन्बंधी इस महान खोज के लिए कोनार्ड ब्लॉक और फियोडोर लाइनेन को 1964 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था।


शरीर में कॉलेस्ट्रोल का निर्माण सीधा शरीर में कॉलेस्ट्रोल का मात्रा पर निर्भर करता है। शरीर में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को संतुलित बनाये रखने के लिए एक विशिष्ट नियंत्रण प्रणाली कार्य करती है। हमारे आहारशास्त्री इस संतुलन के रहस्य को पूरी तरह समझने में जुटे हैं। यदि भोजन द्वारा कम कॉलेस्ट्रोल लिया जाये तो शरीर में ज्यादा कॉलेस्ट्रोल बनेगा और यदि भोजन में ज्यादा कॉलेस्ट्रोल लिया जाये तो शरीर में कम कॉलेस्ट्रोल बनायेगा। कॉलेस्ट्रोल निर्माण के नियंत्रण की मुख्य कुंजी एन्डोप्लाज्मिक रेटिकुलम में एस.आर.इ.बी.पी. स्टीरोल रेगुलेट्री एलीमेंट-बाइन्डिंग प्रोटीन 1 और 2 (SREBP sterol regulatory element-binding protein 1 and 2) है।


कॉलेस्ट्रोल की उपस्थिति में SREBP प्रोटीन दो अन्य प्रोटीन स्केप या एस.आर.इ.बी.पी.-क्लीवेज-एक्टिवेटिंग प्रोटीन (SCAP or SREBP-cleavage-activating protein) और इनसिग-1 (Insig1 or site-1 and -2 protease) से जुड़े रहते हैं। जब कोशिका में कॉलेस्ट्रोल कम होता है तो Insig-1 SREBP-SCAP complex से अलग हो कर उन्हें गोलगी संयंत्र में जाने देते हैं। कॉलेस्ट्रोल कम होने से SCAP दो एन्ज़ाइम S1P and S2P (site-1 and -2 protease) को SREBP का विभाजन करने हेतु आदेश देते हैं। ये दोनों एन्ज़ाइम S1P and S2P SREBP पर कैंची चला कर उसके टुकड़े कर देते हैं। विभाजित SREBP कोशिका के नाभिक में प्रवेश करता है जहां वह एस.आर.ई. (Sterol regulatory Element) से जुड़ कर LDL (लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन रिसेप्टर) अभिग्राहक और एच.एम.जी. कोएन्जोइम-ए रिडक्टेज के लिप्यंतरण को उत्तेजित करते हैं। LDL (लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन) अभिग्राहक रक्त में घूमने वाले LDL का सफाया करते हैं और एच.एम.जी. कोएन्जोइम-ए रिडक्टेज कॉलेस्ट्रोल का आंतरिक स्राव बढ़ाते हैं। यदि कोशिका में कॉलेस्ट्रोल ज्यादा हो तो SREBP इनसिग और SCAP से जुड़े रहते हैं, ऐंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम में ही बने रहते हैं और गोलगी संयंत्र में प्रवेश करने में असमर्थ होते हैं। यह संकेतन पथ डॉ.मिशेल एस. ब्राउन और डॉ. जोसेफ एल. गोल्डस्टीन ने स्पष्ट किया था, जिसके लिए उन्हें 1985 में नाबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उन्होंने यह भी मालूम किया था कि किस तरह SREBP पथ लिपिड निर्माण, चयापचय और ऊर्जा से सम्बंधित जीन्स को नियंत्रित करते हैं। कॉलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक होने पर उसका निर्माण स्थगित हो जाता है।

संक्षेप में कॉलेस्ट्रोल का स्तर कम होने से SREBP HMG-CoA reductase and LDL receptor का लिप्यंतरण उत्तेजित करते हैं।

कॉलेस्ट्रोल परिवहन और अवशोषण का नियंत्रण

कॉलेस्ट्रोल पानी में मुश्किल से थोड़ा सा ही कम घुल पाता है और जलीय माध्यम रक्त में कॉलेस्ट्रोल का प्रवाह बहुत ही सिमित होता है। रक्त में कॉलेस्ट्रोल का मुक्त प्रवाह जटिल संरचना वाले गोलाकार सूटकेस, जिनको लाइपोप्रोटीन कहते हैं, के द्वारा होता है जिनका बाहरी खोल उभयशील या एम्फिफीलिक (ग्रीक भाषा में amphis = both और philic = प्यार या दोस्ती यानी इनमें पानी में घुलने और न घुलने दोनों ही गुण होते हैं) प्रोटीन तथा लिपिड से बना होता है, जिनकी बाहरी सतह जल घुलनशील और अंदर की सतह वसा घुलनशील होती है। लाइपोप्रोटीन एक प्रकार ट्राइग्लीसराइड और कॉलेस्ट्रोल इस्टर अंदर रहते हैं और फोस्फोलिपिड और कॉलेस्ट्रोल बाहरी उभयशील सतह में रहते हैं। लाइपोप्रोटीन कॉलेस्ट्रोल को भ्रमण हेतु घुललशील माध्यम उपलब्ध करवाने के साथ साथ कॉलेस्ट्रोल और लिपिड को अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचने के संकेत भी देता है।


इस हेतु लाइपोप्रोटीन कई प्रकार के होते हैं जिन्हें घनत्व के आधार पर काइलोमाइक्रोन (chylomicron), बहुत कम घनत्व लाइपोप्रोटीन (VLDL), मध्यम घनत्व लाइपोप्रोटीन (IDL), कम घनत्व लाइपोप्रोटीन (LDL) और अधिक घनत्व लाइपोप्रोटीन (HDL) नाम से वर्गीकृत किया है। सभी लाइपोप्रोटीन में कॉलेस्ट्रोल एक ही तरह का होता है। हां कहीं यह मुक्त कॉलेस्ट्रोल के रूप में होता है तो कहीं कॉलेस्ट्रोल इस्टर के रूप में होता है। यदि लाइपोप्रोटीन में प्रोटीन


की मात्रा कम हो तो उसका घनत्व कम माना जाता है। विभिन्न लाइपोप्रोटीन में ऐपो-लाइपोप्रोटीन होता है, जो कोशिका की भित्तियों पर स्थित अभिग्राहक के लिए लाइगेन्ड (यह एक प्रकार का हैंडल होता है जो किसी अभिग्राहक Receptor से जुड़ना की क्षमता रखता है) का कार्य करता है। इस तरह ऐपो-लाइपोप्रोटीन कॉलेस्ट्रोल परिवहन के आरंभिक और गन्तव्य कोशिकीय ठिकाने को इंगित करते हैं।


काइलोमाइक्रोन का घनत्व सबसे कम होता है, इसमें ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-48, ऐपो-लाइपोप्रोटीन सी और ऐपो-लाइपोप्रोटीन ई होते हैं। ये वसा को आंतों से पैशियों और अन्य ऊतकों तक पहुंचाते हैं, जिन्हें ऊर्जा और फैट के निर्माण हेतु वसा अम्लों की जरूरत होती है। यदि पैशियों में कॉलेस्ट्रोल बचता है तो वह वापस यकृत पहुंचता है।

VLDL में ट्रायसिलग्लीसरोल और कॉलेस्ट्रोल होता है और यह यकृत में बनता है। इस अणु के खोल पर ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-100 और ऐपो-लाइपोप्रोटीन ई होते हैं। IDL का अंत दो तरह से होता है। आधे तो ये पुनः यकृत में चले जाते हैं तथा आधे रक्त में ट्रायसिलग्लीसरोल छोड़ते रहते हैं और अंततः LDL में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसमें सबसे ज्यादा कॉलेस्ट्रोल होता है।


इस तरह LDL अणु रक्त में कॉलेस्ट्रोल परिवहन का मुख्य वाहक है। हर LDL अणु में कॉलेस्ट्रोल इस्टर के 1500 अणु होते हैं। LDL के खोल में ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-100 का एक ही अणु होता है जिसे परिधीय LDL रिसेप्टर या अभिग्राहक पहचान लेते हैं और जुड़ कर क्लेथ्रिन युक्त गड्डों में एकत्रित हो जाते हैं। LDL और उसके अभिग्राक दोनों एन्डोसाइटोसिस क्रिया द्वारा कोशिका में एक थैली का रूप लेकर लाइसोजोम से जुड़ते हैं, जो लाइसोजाइमल एसिड लाइपेज़ एन्जाइम की सहायता से कॉलेस्ट्रोल इस्टर को हाइड्रोलाइज करते हैं। कोशिका के भीतर कॉलेस्ट्रोल से भित्तियों का निर्माण होता है या कॉलेस्ट्रोल इस्टर के रूप में संचित होता हैं।

LDL रिसेप्टर का निर्माण SREBP द्वारा नियंत्रित होता है। यही कोशिका में कॉलेस्ट्रोल के निर्माण के भी नियंत्रित करता है। जब कोशिका में पर्याप्त कॉलेस्ट्रोल होता है, तो LDL रिसेप्टर का निर्माण बाधित होता है और LDL अणु नये कॉलेस्ट्रोल को ग्रहण नहीं कर पाता है। इसके विपरीत यदि कोशिका में कॉलेस्ट्रोल का अभाव हो तो LDL रिसेप्टर का निर्माण ज्यादा होता है। यदि यह प्रक्रिया अनियंत्रण हो जाये तो रक्त में बिना LDL के रिसेप्टर के भी LDL अणुओं की संख्या बढ़ जाती है। ये LDL अणु ऑक्सीकृत होकर माक्रोफाज द्वारा खा लिए जाते हैं और फोम कोशिकाएं बनाते हैं। ये फोम कोशिकाएं रक्त-वाहिकाओं की भित्तियों से चिपक जाती हैं और ऐसे एथरोस्क्लिरोटिक प्लॉक बनने की शुरूआत होती है। ये प्लॉक के कारण ही हृदयाघात और स्ट्रोक होता है और इसीलिए LDL कॉलेस्ट्रोल को बुरे कॉलेस्ट्रोल के नाम से जाना जाता है।

HDL अणु कॉलेस्ट्रोल को पुनः यकृत में विसर्जन हेतु या अन्य ऊतकों में हार्मोन्स के निर्माण हेतु पहुंचाते हैं। इसे विपरीत कॉलेस्ट्रोल परिवहन कहते हैं। शरीर में HDL कॉलेस्ट्रोल का ज्यादा होना अच्छे स्वास्थ्य की निशानी माना जाता है जबकि LDL कॉलेस्ट्रोल का एथेरोस्क्लिरोसिस से गहरा सम्बंध है।

कॉलेस्ट्रोल का चयापचय, विसर्जन और पुनर्चक्रता

कॉलेस्ट्रोल यकृत में ऑक्सीकृत होकर पित्त-अम्ल बनाता है, जो ग्लाइसीन, टॉरीन, ग्लुकोरोनिक एसिड या सल्फेट से जुड़ जाते हैं। जुड़े हुए और मुक्त पित्त-अम्ल पित्त-रस के रूप में विसर्जित हो जाते हैं। इनकी अधिकतर मात्रा लगभग 95% पुनः अवशोषित हो जाती है और पुनः चक्रित होती है, शेष मल द्वारा बाहर निकल जाती है।

Dr. O.P.Verma

M.B.B.S., M.R.S.H.(London)
President, Flax Awareness Society
7-B-43, Mahaveer Nagar III, Kota (Raj.)
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